Tuesday, December 28, 2010

जीवन - संध्या


जीवन – संध्या

जब अस्ताते सूर्य का अंतिम स्वर्णिम प्रकाश ,
तेजी से बढ़ते क्षितिज के अंधकार में ,
डूबने को हो तैयार |
तब ,
उस सूर्य का ,
जिसने हमें ,
उदय से अस्त तक ,
सिर्फ़ अपनी उर्जा व प्रकाश ही दिया,
अपना आभार दिखलाये |
आओ ,
उस संध्या-बेला में ,
अपनत्व का दीप जला ,
प्यार का प्रकाश फैलाये |
और ,
सब साथ मिल ,
जीवन को ज्योतिर्मय बनाये |

नव-वर्ष की शुभ-कामनाएँ



|      नव-वर्ष की शुभ-कामनाएँ

रिश्तों का व्यापर न हो इस नव-वर्ष में |
केवल निश्छल प्यार भरा हो सम्बन्धों में |
स्वार्थ का सैलाब थमें इस नव-वर्ष में |
बस परमार्थ का भाव भरा हो नव-वर्ष में |
भ्रष्टाचार न फन फैलाए नव-वर्ष में |
शुभ आचार-विचार भरा हो हर मानव में |
आतंक का न नामोनिशान हो नव-वर्ष में |
बस भाईचारा महक रहा हो शान्ति-वन में |
भोतिकता का राज न हो इस नव-वर्ष में |
आत्मीयता का साज सजा हो नव-वर्ष में |
देश, समाज ने दिया हमें क्या यह न सोचें |
हमनें उन्हें दिया क्या बस यही सोच हो नव-वर्ष में |
अधिकारों की बात करें ना ,केवल कर्तव्यों को समझें |
बस यही संकल्प करें हम सब इस नव-वर्ष में |   

Wednesday, December 22, 2010

चार लाइनें [चतुर्भुज]



चमकीली लकीर एक , हर काला बादल होय |
साधु पहचाने उसे , जाकी निंदा सब जग होय |
प्रेम-भाव से साधु के बादल पिघल्यो जाय |
खुशियों की बरखा करे , खुद खाली हो जाय |


फलों से लदे वृक्ष ही नीचे झुके होते हैं |         
पत्थर से मारने पर भी मीठे फल देते हैं |
इनका जीना ही है सच में सच्चा जीना |
बाकी तो यों ही दिखावे में तने होते हैं |


विष भरे भुजंग चन्दन से लिपटे होते हैं |
और हरदम ही उनपे विष उगलते हैं |
फिर भी अपनी खुशबु से महकता है उनको चन्दन
सत्पुरुष हर हाल में सदा ही सम होते है |


सीधे वृक्षों को हरदम ही काट दिया जाता है |
बांके-टेढों का ही बस जंगल में बोलबाला है |
सीधे तो कट कर भी जिन्दा रहते हैं कुछ बनकर |
बांका-टेढ़ा तो बस ,जलने के लिये ही आता है | 


कोई बलवान ,कोई धनवान ,कोई सत्तावन ,
किसी ने जीती धरती सारी ,बन सिकंदर महान |
लेकिन जिसने जीता हो ,बस अपना ही मन ,
वह सर्वशक्तिवान ,जीता उसने यह ब्रह्माण्ड |


दिन-रात का मिलन ,संध्या कहलाता |
सुख-दुख का मिलन ,जीवन कहलाता |
दो दिलों का मिलन ,प्रणयगीत सरगम बन गाता |
दो परिवारों का मिलन ही शादी कहलाता |

छोटी-छोटी खुशियों की ,महक है जिन्दगी |
जीने के लिए नहीं चाहिये सारा आकाश |
कोई खुशी के लिए कीचड़ में कमल ढूंढता है |
किसी को स्वच्छ सरोवर मे है कीचड़ की तलाश |


भावों का तूफ़ान ह्रदय में आता है |
शब्द तो निर्जीव ,भ्रम ,दिखावा है |
भावना के सैलाब को शब्दों में न बांधो |
उन्हें मौन ही अखियों से बहने में मजा आता है |


ऊबता तन बैचेनियाँ दिखाता है |
सभ्य मन फिर भी मुस्कराता है |
न ऊबते जानवर न बुध्द ही बैचेन कभी –
यह तो रोजमर्या आदमी की भाषा है |


धूप में हीरे से चमकते जो कांच के टुकड़े |
बस एक मृगमरीचिका ,भुलावा है |
जो गहरी कोयले की खान में जा रोशन करे दीया
असली हीरे वहीं वो पता है |


रग-रग में यदि बसी हो बेईमानी बदरंग |
दबदबा छाया हो उसका ,बेमाने बाकी सब रंग |
तो बद से बदतर बदनसीबी के छायेंगे सब रंग |
फिर क्या करेगा राजा और क्या करेंगे हम |


जमीन सबकी एक ,पेड़-पौधे अलग-अलग |
रूप अलग ,रंग अलग ,गुण-धर्म भी अलग-अलग |
जमीं का सभी से सम्बन्ध होता एक सा –
जैसे बीज वैसे ही फल सभी के अलग-अलग |


खाली पड़े बरतन आवाज बहुत करते हैं |
भरे ,गहरे सागर मर्यादित रहते हैं |
अधभरे मटके झलकते ही रहते हैं –
जो फलों से लदे हों ,वे डाल झुके होते हैं |


ये अवनी ये सागर ये नादियाँ-किनारे |
ये सूरज ये चंदा ये अम्बर सितारे |
ये जीवन ये संसार कुछ भी नहीं है –
तुम्हारा करम है मर्म है तुम्हारे |

         मौत
तेरे लिए जीया यह जीवन ,
तू ही मेरा असली प्रियतम |
तुझसे मेरी शादी निश्चित ,
बस तारीख निकलना बाकी है |


न मुँह में दांत ,न पेट में आँत |
गंजेपन का सिर पर पहन रखा चेहरा |    
चाहे झुर्रियों से भर गया पूरा चेहरा |
फिर भी बूढ़े बन्दर की गुलाट सा –
उछल-कूद करता मन मेरा |


कभी मयखानों में तो कभी पैमानों से पी है |
कभी दिन-रात साखी के नजरानों से पी है |
नशा चढ़ता ही गया गुबार बन सदा के लिए –
जब से ए इलाही तेरे नूर की मय पी है |


तेरे चेहरे से टपकता नूर मय का नशा लिए है |
नज़रों से झलकता जो मदिरा भरा प्याला है |
तेरे मद से भरे ओंठ पैमाने से हैं लगते –
मयखाना पूरा बनके ,मदहोश मुझको करते |


मस्तिष्क से मस्तिष्क की लड़ाई तर्क |
बहुत ही सतही ,उथला शाब्दिक वादविवाद |
दो ह्रदयों के बीच जो मौन ही घटता –
वही है मिलन ,वही है संवाद |
मैं मिटाने को पीता रहा जिन्दगी भर |
प्यास बढती गई जितना पिया जम से |
बुझा दे दो घूंट पिला के मुझको –
अपनी नजर से लबे-जाम से |


शराफत की राख से ,चाहे जितना ढको अंगार मन
उसे भड़काने तेरे यौवन का ,बस एक दीदार काफी है
सूखी लकड़ी से पड़े हों चाहे उम्र के अन्तिम पड़ाव
उसे सुलगाने तेरी नजर की ,बस एक चिनगार काफी है |


हुस्न-हुस्न है मजा नहीं है ,
इश्क-इश्क है सजा नहीं है|
गलती करना तो इनकी फ़िदरत है ,
आदमी-आदमी है खुदा नहीं है |


नींद आती नहीं बुलाने से ,
याद जाती नहीं भुलाने से |
जीलो हर पल जिन्दगी का अभी ,
वक्त रुकता नहीं रुकने से |


हम नूरे-हुर को नजरानों से पीया करते हैं |
जो चढ़ के न उतरे वो शराबे-हुस्न पीया करते हैं |
हम मयखानों में जा पैमानों से नहीं पीते –
अरे !आशिक हैं साखी के लबे-जाम से पीते हैं |


नशा तो हम में है जिसे पीकर ,
झूम रहा तेरा शबाब |
और फिर अदा कहलाई ,
तेरी हर नशीली चाल |

तो ही निर्मल, अनन्त आस
२६ 
मैंने यादों के एल्बम, व-
भविष्य के सुनहरे सपनों में,
जीवन यों ही गवाँ दिया |
मैंने आज को भी ‘कल’ बना दिया |
२७
चांदी की लाइन लिए होता है हर बादल काला |
कोयले कि खदान में भी मिल जाता है हीरा न्यारा |
हर बुरे इन्सान में भी होता है कुछ तो अच्छा |
कोई सतगुरु करवा लेता है जिससे अमृत-वर्षा |
२८
व्यक्तित्व का अस्तित्व नहीं हुआ करता,
क्योंकि वह बदलता रहता गिरगट के रंग सा |
अस्तित्व का व्यक्तित्व नहीं हुआ करता,
क्योंकि वह अचल, अव्यक्त पर होता सदा |
२९    
वीणा, तबला, बांसुरी, सभी साज पर अलग-अलग,
हर मानव का स्वभाव भी, वैसे ही होता अलग,
लेकिन जब तालमेल से बजते, लेकर सभी एक लक्ष्य,
तो ही बनता मधुर संगीत, वरना बस शोर कर्कश |
३०
इन्द्रियों पर अपने पा ली जीत जिसने वही इन्दर,
मूर्ति जिसकी बिठाली मन के अन्दर वही मंदर,
कोशिशें करते ही रहते हम सभी जिन्दगी भर,
पर जीतता जो अन्त में, वही मुकद्दर का सिकन्दर |
३१
जिसने इस जीवन में ही, जान लिया हो आत्म-तत्व,
चाहे फिर वह कर्मयोगी, ज्ञानी हो या हो भक्त,
उसने जीते जी ही पाली मुक्ति,
उसने ही पाया ब्रह्मत्व |
३२
देखो-देखो, देखो-देखो, आशाओं के बादल छाये,
यदि स्वार्थ तो ये बादल, निराशा ही बस बरसाए,
लेकिन दूजों के लिये बरस यदि, ये बिल्कुल खाली हो जाए,
तो ही निर्मल, अनन्त आसमां, केवल हम को दीख पाए |

Saturday, December 18, 2010

मरघट व उन्नति कविताएँ


               मरघट--१

तेरे घट की प्यास बुझाने ,ए मरघट |
जनम-जनम से कोशिश करते ,मर-मर कर |
फिर भी अनबुझा रहा ,सदा ही तेरा घट |
इच्छाओं के दावानल सा ,तू लगता मरघट |


          मरघट---२

मरघट में रोज ही , बस रही हैं बस्तियाँ |
मरघट में रोज ही ,बदल रही हैं बस्तियाँ |
बस कर भी मरघट की ,सुनी है बस्तियाँ |
उजड़ रही बस्तियों में ,मस्तियाँ ही मस्तियाँ  |
बस कर भी मरघट में ,दिखती बस हड्डियाँ |
चहकता वहाँ जीवन ,जहाँ उजड रही बस्तियाँ |
            उन्नति

मानव---स्वभाव--- नष्ट---संस्कृति |
परियावरण---छेड़छाड़---विनाश---प्रकृति |
सोच---व्यवसायिक---स्वार्थ---प्रवृति |
सपने---भौतिक---फल---कुमति |
परिणाम---सुखद---क्षणिक---सुषुप्ति |
तनाव---अवसाद---मस्तिष्क---विकृति |

बाहर---भोग---भौतिक---कृति |
अन्दर---चेतन---आध्यात्म---जागृति |
परियावरण---निसर्ग---मानव---संस्कृति |
सामंजस्य---तालमेल---होगी---प्रगति |
सच---तभी---सर्वोन्मुखी---उन्नति |