Wednesday, February 23, 2011

बहुरंगी जीवन मधुशाला


हुरंगी जीमधुशाला
मदिरालय बनने को कब से ,सारा जग है मतवाला |
ऊपर छत नीले अम्बर की ,जड़ित चाँद ,मंडल-तारा |
नीचे आँगन हरित अवनी का ,पर्वत,सागर,नदिया-धारा |
रंग-बिरंगे फूलों से सजी ,प्यारी-प्यारी मधुशाला |
यह सुन्दर सुघड़ बदन मेरा ,बस इक पीने का प्याला |
लयबद्ध प्राण जो बहते ,वही है मेरी जीवन हाला |
पीला रहा है पावन मदिरा ,बन विवेक मेरा साखी |
यह जीवन जो मुझे मिला है ,वही है सच्ची मधुशाला |
मदिर-मदिर दो यौवन घट से ,जब टपका मधु-रस प्यारा |
जो मिल बना रहे आपस में ,इक नूतन मिट्टी का प्याला |
साखी उसमें भर देता है ,जीवन की सच्ची मदिरा |
हो सजीव वह शोभित करता ,जग की मोहक मधुशाला |
जब मादक मदिरालय आता ,नया-नया पीनेवाला |
आते ही वह रटन लगाता ,पीने पावन मधु हाला |
जननी उस पल बनकर साखी ,उसे पिलाती प्रेम की मदिरा |
जिसको पी मदमस्त हुआ वह ,बढता जीवन की मधुशाला |
बचपन में सबका ही होता ,सीधा-सादा भोला प्याला |
जिससे झलक रही होती है ,किलकारी मस्ती हाला |
अलग-अलग रंग ,स्वादों की ,नहीं जानता वह मदिरा |
वह मासूम निष्कपट होता ,सच्चे प्रेम की मधुशाला |
फिर शुरू किया उसको भरना ,जो था अब तक खाली प्याला |
संस्कार व जाति-धर्म की ,मीठी-कड़वी जीवन हाला |
जिसको पी कस्तूरी-मृग सा ,वह बोराया भटक रहा |
असमंजस में पड़ा सोचता ,कहाँ छुपी है मधुशाला |
अब तक था मासूम सरल जो ,सीधा-साधा ,भोला-भाला |
उसे मदरसा से मयखाने ,भेजा पीने ज्ञान की हाला |
जहाँ पिलाता गुरु साखी बन ,अलग-अलग स्वादों की मदिरा |
पर पीता जो प्रेम की मदिरा ,वह पाता पावन मधुशाला |
धीरे-धीरे परिपक्व हो रहा ,जो था अबतक कच्चा प्याला |
धीरे-धीरे उसमें भरती ,गदराई अल्हड़ हाला |
जिसके नशे में इतरा-इतरा ,झूम रहा वह मदहोंशी में |
पहुँच गया फिर वह मदमाता ,यौवन की मादक मधुशाला |
जब पहली बार छुआ मैंने ,पीने को मदिरा प्याला |
तो थिरक उठी उसके अन्दर की ,भरी हुई यौवन हाला |
जब छुआ होठों से पीने ,मचल उठी मादक मदिरा |
जिसको पी मदहोश हुआ मैं ,झूम उठी सारी मधुशाला |
१०
जब मिली चाँदनी चार दिवस ,तो – झलका यौवन का प्याला |
एक यदि मधु मय बनता ,तो – दूजा बनता पीनेवाला |
कामदेव बन साखी उनमें ,भरता बासंती मदिरा |
सच्चे दिल से जो पीता यह ,पाता प्रेम की मधुशाला |
 ११
दिन-रात बस चाह एक ही ,भर जाए इच्छा प्याला |
साम ,दाम ,व दण्ड ,भेद से ,भरता मतलब की हाला |
हर पल ही घटती जाती है ,जीवन की पावन मदिरा |
बेहोंशी में फिर भी पड़ा जो ,कैसे पाएगा मधुशाला |
 १२        
कोई नहीं छोड़ना चाहे ,यह कैसी मादक हाला |
चाट रहा वह बस जिव्हा से ,चाहे हो खाली ही प्याला |
किसी की सूखी किसी ने ढोली ,यह पावन जीवन मदिरा |
समझ न पाया कैसे पीऊँ ,जीवन की दुर्लभ मधुशाला |
१३
भुला सभी जग-जंजालों को ,निकल पड़ा पीनेवाला |
किस पथ ,राह ,गली से जाऊँ ,असमंजस वह भोलाभाला |
जहाँ भर सकूँ सच्चे मय से ,अपने उर का खाली प्याला |                                                
कहाँ मिलेगी ऐसी मदिरा ,कहाँ छुपी ऐसी मधुशाला |
१४
गिरजा ,मस्जिद और देवालय ,ढूँढ रहा जा हर मदिरालय |
सजे-धजे से पर ये तो सब ,अन्दर से हैं खाली प्याले |
उसमे जो साखी सा दिखता ,पीला रहा जहरीली मदिरा |
जिसको पी बेहोंश भटकता ,गुमराह हुआ वह मधुशाला |
१५
पंडित ,मुल्ला और पादरी ,जिनके हाथों में माला |
लेकिन मन में तो केवल है ,मद ,मदिरा ,मधु ईच्छा हाला |
और-और बस और चाहिये ,करता हर आनेवाला |
जितना पीओ प्यास बढ़ाती कैसी अद्भुत यह मधुशाला |
१६
अलग-अलग मदिरालय सबके ,अलग-अलग सबका प्याला |
पी-पी कर मदहोश हो रहे ,अपनी-अपनी सब हाला |
कोई नहीं जन पाया पर ,क्या होती सच्ची मदिरा |
जो दे तृप्ति ना पी पाया ,प्रेम की मदिरा ढाई प्याला |
१७
मन्दिर, मस्जिद मदिरालय से, चाहे गिरजा, गुरुद्वारा |
चाहे बाइबल या कुरान हो, चाहे गीता की हाला |
अलग-अलग इनको बतला, मत – पिला तू साखी विष-मदिरा |
राह अलग-अलग लगती पर, पहुँचाती सब ही मधुशाला
१८
    
ले अल्लाह का नाम ,हलाहल- भरते क्यों ये जग का प्याला |
क्यों राम नाम ले द्वेष फैलाते ,जैसे जंगल की ज्वाला |
धर्म तो बस पीना व पिलाना ,निर्मल पावन प्रेम की मदिरा |
पर विक्रेता बेच रहे सब ,अलग-अलग अपनी मधुशाला |
१९
हिन्दू ,मुस्लिम ,ईसाई का ,अपना अलग अहम् प्याला |
टकरा-टकरा टूट रहे जो ,ढोल रहे जीवन हाला |
पर जा मदिरालय में देखो ,साथ-साथ सब पीते हैं |
मन्दिर ,मस्जिद ,गिरजा तोड़े ,जोड़ रही है मधुशाला |
२०
जब मद भरे लबरेज जाम ,टकराएँ झलकाऐ` हाला |
ऐसे पीनेवालों से जब, डगमग हो मदिरालय सारा |
तब साखी तू इन्हें थामना ,न बहने देना जीवन मदिरा |
समझाना सबका साखी तू ,सबकी एक ही मदुशाला |
२१
गीता ,बाइबल व कुरान सब ,पीला रहे मधु बन प्याला |
चाहे कोई भी प्याला हो ,मुझको बस पीना हाला |
मदिरा सब में एक भरी है ,चाहे कोई भी पीओ |
प्यालों को ले वे नहीं लड़ते ,जिन्हें पाना सच्ची मधुशाला |
२२
मैं दिग्भ्रमित सा ढूंढ रहा था ,इधर-उधर मधु का प्याला |
मिला मुझे तब राह एक ,तृप्त हुआ पीनेवाला |
बोला क्यों तू भटक रहा ,कोई भी एक पकड़ राह |
बस उस पर तू चलता जा ,पहुँच जायगा मधुशाला |
२३
लगी तलब जब पीने की ,उसको अमृत की हाला |
पहुँच गया वह मदिरालय ,लेकर अपना खाली प्याला |
गुरु बना फिर उसका साखी ,पिला रहा ज्ञान मदिरा |
जिसने पी यह पावन मदिरा ,पा जाता सच्ची मधुशाला |
२४
मिलता सब यों तो मयखाने ,पर बहुत एक ही है प्याला |
तृप्त करेगी तेरे उर को ,उसमें भरी हुई हाला |
साखी पीला रहा हर एक को ,उनके स्वादों की मदिरा |
फिर भी यदि तू पी न सका ,तो –दोषी नहीं है मधुशाला |
२५
जिसको पी तृप्ति पाना हो ,वो आये मेरी मधुशाला |
मधु-रस से भर दूँगा उसका ,एकदम खाली जीवन प्याला |
जो भी मतवाला पीता है ,इसमें भरी पावन मदिरा |
वोही होता है इस जग में ,सच्चा आशिक पीनेवाला |
२६
मेरी मधुशाला वो आवे ,जिसे चाहिये जीवन हाला |
मेरी मधुशाला वो आवे ,जिसको पीना प्रेम का प्याला |
मेरी मधुशाला है उसकी ,साखी लगता जिसको प्यारा |
धर्म यहाँ बाधा नहीं बनता ,है सबके लिए खुली मधुशाला |
२७
दिन-रात बस काम पिलाना ,प्यासों को पावन हाला |
नाम नहीं हम दीवानों का ,कह देना बस प्रेम का प्याला |
धर्म हमारा बस पीना है ,जीवन की सच्ची मदिरा |
पूजा बस साखी की करना ,मन्दिर मेरा मधुशाला |
२८
बाहर हो कोई भी रस ,हो अन्दर केवल तेरी हाला |
बाहर चाहे रतन-जड़ित पर ,अन्दर हो मिट्टी का प्याला |
इस मृगतृष्णा से जग मदिरालय ,फंसे हुए है सब साखी |
बाहर जो इससे निकलेगा ,वो – पा जाएगा मधुशाला |
२९
कितनी इच्छाओं की मदिरा ,भर-भर पीता यह मन प्याला |
लेकिन फिर भी प्यास बुझेना ,कैसी है यह मादक हाला |
तेरे दर आने वालों को ,तू- ऐसी पीला मदिरा साखी |
पूर्ण तृप्त हो पीनेवाले ,पा जाये सच्ची मधुशाला |
३०
कोई मिट्टी का कोई सोने का ,कोई रतन-जड़ित प्याला |
पीला ,लाल चाहे कोई रंग हो ,कहलाती सब ही हाला |
कोई रंग हो ,कोई रूप हो ,पर सबमें है एक नशा |
सबका एक ही साखी है ,व- सबकी एक ही मधुशाला |
३१
यह शरीर तो है केवल ,मिट्टी का खाली प्याला |
जिसमें भर-भर हर पल पीते ,मन की मादक झूठी हाला |
जिसने पहचानी यह मदिरा ,उसने ढोल दिया उसको |
पहुँच गया फिर वह दीवाना ,सच्ची पावन मधुशाला |
३२
इधर-उधर गिरजा मस्जिद मठ ,ढूंढ रहा मैं मधु हाला  |
जो बुझा सके मेरे अन्दर की ,धूं-धूं जलती हवन सी ज्वाला |
खोजा जब अपने घर अन्दर ,तो पाई असली मदिरा |
जिसको पी मैं तृप्त हुआ ,पहुँच गया सच्ची मधुशाला |
३३
आते-जाते सोते-जागते ,जलती जिसमें एक ही ज्वाला |
हरदम जिसके मन में चलती ,बस तेरी यादों की माला |
वह दीवाना जो पीता हो ,हरदम तेरी ही मदिरा |
अन्दर-बाहर दसों दिशा ,बस –होती उसके मधुशाला |
३४
अन्तिम बून्दें जब प्याले से ,टप-टप गिरती हो हाला |
अन्तिम घूँट जीवन मदिरा का ,जब-बुझा रहा हो उर की ज्वाला|
बेहोंशी के उस दौर में ,जब तुम्हें पुकारूँ मैं साखी |
तब आ सच्चा मधु पिलाना ,तृप्त हुआ पाऊं मधुशाला |
३५
जब मदिरा पूरी पी लूँ ,व- तृप्ति मिले पीकर हाला |
तब साखी उसको न भरना ,खाली ही रखना प्याला |
न गंगा जल से इसको धोना ,न तुलसी पहनना माला |
साथ मुझे तू ले चलना ,बस- अपनी पावन मधुशाला |
३६
बड़े प्यार से जब में उठाता ,मधु भरा अपना प्याला |
रंग अलग पर नशा वही ,जो- होता सबकी मधुशाला |
जिसको पी में दीवाना सा ,साखी-साखी चिल्लाता |
मुझको तो अब हर सूरत ही ,दिखाती है तेरी मधुशाला |
३७
पंचभूत से बना हुआ ,यह – तन ही पीने का प्याला |
जिसमे भर-भर कर पीते सब ,मनमौजी मदमाती हाला |
ऐ प्यारे चेतन साखी तू ,ऐसी पिला ज्ञान की मदिरा |
जिसको पीकर पा जाऐ सब ,सच्ची पावन मधुशाला |
३८
चाह मिला यह जो मुझको ,मिट्टी का सुन्दर प्याला |
झलक रही हो जिससे हरदम ,तेरी ही पावन हाला |
प्यास बुझाये यह दूजों की ,ऐसा कुछ करना साखी |
तृप्त होवें सब पीनेवाले ,मेरी इस जीवन मधुशाला |
३९
जो भी आता इस मदिरालय ,थाम हाथ अहम् का प्याला |
मनमौजी ,मगरूर तर्क की ,वह पीता भर-भर हाला |
साखी वह अन्जान ,माफ़ कर ,उसे पिला प्रेम-मदिरा |
जिसको पी वह आशिक बन ,पा जाए सच्ची मधुशाला |
४०
मैं ,मेरा बस बाकी कुछ ना ,थामा हाथ अहम् का प्याला |
मेरा घर ,बीबी ,बच्चे ,धन ,सारा जग मेरी ही हाला |
यह पिली वह कल पी लूँगा ,नहीं मिले तो पगलाता |
ऐसा पीनेवाला कैसे ,पाएगा सच्ची मधुशाला |
४१
बचपन में हमें मिला ,निश्छल ,कपट-रहित प्याला |
यौवन में मगरूर हुआ ,पी – इच्छाओं की मादक हाला |
हुआ वृध्द फिर भी न छूटी ,काम-वासना की मदिरा |
ऐसा पीनेवाला कैसे ,पाएगा सच्ची मधुशाला |
४२
चाहे बादल ,खुला आसमाँ ,चाहे सुख-दुख का प्याला |
चाहे कोई भी मौसम हो ,बस पियूँ मैं तेरी हाला |
यदि डगमग हों पैर कभी तो ,मुझे थामना तुम साखी |
मिला सहारा यदि तेरा तो ,पा जाऊँगा मधुशाला |
४३
मिला मुझे जो यह अद्भुत ,सुन्दर प्यारा तन का प्याला |
जिसके अन्दर थिरक रही ,हरदम जिसकी चेतन हाला |
चाह जानूँ मैं उस साखी को ,जिसका यह मदिरालय है | 
पी-पी कर फिर उसकी मदिरा ,पा जाऊँ मैं मधुशाला |
४४
साखी तुने दिया सभी कुछ ,मद,मदिरा,मधु,मय,हाला |
लेकिन फिर भी कभी न भरता ,मेरी इच्छाओं का प्याला |
बार-बार मैं दोष दे रहा ,तुझको ही हरदम साखी |
आह-आह की मदिरा छूटे ,वाह-वाह हो मधुशाला |
४५
चाहे ईद ,क्रिसमस ,होली या ,दीवाली दीपों की माला |
इन सबमें ही भरी हुई है ,रंग-बिरंगी उत्सव हाला |
साखी पिला रहा हम सबको ,खुशियों की भर-भर मदिरा |
फिर भी यदि तू पी न सका तो ,दोषी नहीं है मधुशाला |
४६
चाह नहीं बिन पिए ही ,टूटे यह मिट्टी का प्याला |
चाह नहीं बिन पिए ही ,ढुल जाए जीवन हाला |
चाह पिला तू ऐसी मदिरा ,मुझको ऐ सच्चे साखी |
जिसको पी मदमस्त हुआ ,पा जाऊँ सच्ची मधुशाला |
४७
युवक-युवती तो होते है ,जैसे होते खाली प्याले |
धीरे-धीरे जब चल कर वे ,पहुँचे यौवन के मदिरालय |
साखी उन्हें तब भर-भर कर ,पिला रहा प्रेम-मदिरा |
जिसको पी वे धीरे-धीरे ,पहुँचे शादी की मधुशाला |
४८
सब मिलता शादी मदिरालय ,सुख-दुख,प्यार,मोह,मद,हाला |
लेकिन सच्चा आशिक पीता ,केवल प्यार भरा प्याला |
जो भी यह मदिरा पीता है ,हरदम ही अपने जीवन |
उनका घर ही होता है ,सच्ची ,पावन मधुशाला |
४९
यह शादी का मदिरालय तो ,होता दो प्यालों वाला |
विश्वास के इन खाली प्यालों में ,जो भी चाहो भरलो हाला |
जो आपस में भर प्रेम की मदिरा ,पीते-पिलाते बन साखी |
तो सुख-दुख के पथ होते समरस ,पा जाते वे मधुशाला |
५०
जहाँ अलग-अलग रूप-रंग के, सजे-धजे आकर्षक प्याले |
जहाँ अलग-अलग धर्म, भाषा की, मदिरा पीते आनेवाले |
जहाँ फिर भी बहके तेरे मधु से, हर आशिक पीनेवाला |
वह मेरा भारत ही इस धरती, सच्ची प्यारी मधुशाला |
५१
हर प्रान्त इस मदिरालय का, जैसे होता खाली प्याला |
जिसके अन्दर भरी हुई है, अलग-अलग भाषा की हाला |
लेकिन सबमें नशा एक ही, देश-प्रेम का हरदम बहता  |
हम सब तो रिन्दे हैं जिसके, वह भारत मेरी मधुशाला |    
५२
हर पाँच साल में साखी चुनता, अलग-अलग पीनेवाला |
जो भर देगा खाली प्याले, सच्चे वादों की हाला |
जब साखी ही पी जाता हो, भर-भर खुद सबकी मदिरा |
तब कैसे आबाद यह होगी, मेरे सपनों की मधुशाला |
५३
प्रजातंत्र में प्रजा तो है बस,जैसे होता खाली प्याला |
हर नेता जिसमें भरता है, जाति, भाषा, धर्म की हाला |
अपना उल्लू सीधा करने, पिला रहा वह विष मदिरा |       
ऐसे साखी के हाथों में, महफुस नहीं है मधुशाला |
५४
इस देश को चला रहा, अफ़सर, बाबू का प्याला |
जिसमें भरी लाल मादक, फीताशाही की हाला |
पिला रहे जो हम रिन्दों को, उनकी मन चाही मदिरा |
फिर कैसे खुशहाल रहेगी, मेरे सपनों की मधुशाला |
५५
नेता तो बस होता है, केवल मृगतृष्णा प्याला |
जिसमें उम्मीदों की भरता, मदिरा हर पीनेवाला |
उसे तोड़ दो पिला सके न, जो हमको सच्ची मदिरा |
क्योंकि केवल हम रिन्दों कि, है यह पावन मधुशाला |
५६
कब तक हम जबरन पियेंगे, सत्ता का मगरूरी प्याला |
कब तक हम जबरन पियेंगे, उनके स्वार्थ कि विष हाला |
उठो! कुचल दो उन सबको, जो – ढ़ोल रहे असली मदिरा |
सच्चे रिन्दों से ही बनती, सच्ची प्यारी मधुशाला |
५७
छोड़ सभी थामना होगा, आज हमें क्रांति प्याला |
जिसमें भर-भर पीना होगी, रंग दे बसन्ती कि हाला |
जब भड़के ऐसी ज्वाला तो, सही राह दिखाना ऐ साखी |
जिस पर चल कर बना सकें हम, अपने सपनों कि मधुशाला |
५८
हों अलग-अलग सब भाषा-बोली, पर केवल हो हिन्दी प्याला |
हों हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पर भारतीय ही हो हाला |
जब साखी बैठ रिन्दों के संग, पियेगा सुख-दुख कि मदिरा |
तभी बनेगा मेरा भारत, रामराज्य सी मधुशाला |
५९
क्यों छोड़ पावन भारत का, इण्डिया का थामा प्याला |
हिन्दी सा मधुरस छोड़ क्यों, हम पीते अंग्रेजी हाला |
गुलामियत की कबतक हम, पीते रहेंगे यह मदिरा |
कब जगत-गुरु, सोने की चिड़िया, फिर होगी मेरी मधुशाला |
६०
सब भाग रहे दूजे मदिरालय, देख चकाचौंध प्याला |
लेकिन जिसमें भरी हुई है, केवल मृगतृष्णा हाला |
मिट्टी सा दिखता अपना पर, भरी है उसमें असली मदिरा |
कस्तूरी-मृग से भटक-भटक, क्यों ढूंढ रहे हो मधुशाला |
६१
चाहे बढ़े चलें हम आगे, थाम हाथ प्रगति का प्याला |
चाहे कोई भी मदिरालय, पियें जा हम कर्म की हाला |
लेकिन अन्दर नशा हो केवल, अपनी संस्कार मदिरा का |
जिसके नशे में झूम-झूम हम, जुड़े हों अपनी मधुशाला |
६२
चाहे मिट्टी चाहे सोना, चाहे रतन जड़ित हो प्याला |
चाहे बीज, अंगूर, लता, चाहे हो कोई भी हाला |
चाहे कोई भी साखी हो, चाहे कोई पीनेवाला |
लेकिन असली नशा जहाँ हो, वहीं है सच्ची मधुशाला |
६३
सोच रहा मैं मेरा तो है, एक भरा अमृत प्याला |
मेरे बिन सज न सकेगी, यह महफ़िल दुनिया हाला
यहाँ रोज टूटते है प्याले,व – रोज बदलते पीनेवाले |
फिर भी हरदम सजी-धजी, चहक रही है मधुशाला |
६४

रंग-बिरंगे फूल सभी, जैसे अपना तन का प्याला |
उसमें भरी मकरंद होती है, जैसे अपनी यौवन हाला |
इतराती आकर्षित करती, आमंत्रित भँवरे रस पीने |
पर जो झूम महक महकता, वह फलता बन कर मधुशाला |
६५
जब पहली बार पीने मदिरालय, पहुँचा लेकर खाली प्याला |
जब पहली बार मैंने पी थी, साखी तेरी पावन हाला |
तब एक अजीब सी थिरकन मेरे, दिलो-दिमाग पर छाई थी |
फिर धीरे-धीरे रिंद बना मैं, पी-पी कर तेरी मधुशाला |
६६
तेरी सूरत देख-देख ही, हो जाता हूँ मतवाला |
तेरी खुशबू से महक रहा, मेरा यह तन-मन सारा |
साखी मेरे पास न आना, मैं पागल हो जाऊँगा |
थिरक रही है मेरे अन्दर, बिना पिए ही मधुशाला |
६७
उसमें क्या डालेगा कोई, जिसका पूर्ण भरा हो प्याला |
उसमें केवल मिल सकता वह, जो घुल जाए उस हाला |
रत्नों के प्याले मिट्टी से, लगते हैं जिसको हरदम |
वहीं मिलेगी हम रिन्दों को, सच्ची पावन मधुशाला |
६८
जब मैंने पूरी पिली हो, जीवन की पावन हाला |
जब पूर्ण रूप से तृप्त हुआ, टूट रहा हो मिट्टी प्याला |
तब मेरी तुम अन्तिम इच्छा, पूरी करना जीवन-साखी |
सच्चे रिन्दों में बटवाना, मेरी बहुरंगी मधुशाला |
६९
न रोना न चिल्लाना, जब- गिरा पड़ा हो मेरा प्याला |
यादों के मदिरालय से ला, तुम पीना सुनहरी हाला |
खुशी-खुशी तुम रुखसत करना, बिदाई के उस अन्तिम पल |
बने महोत्सव मरण भी मेरा, सजी-धजी हो मधुशाला |
७०
जो भी आए इस उत्सव में, लेकर अपना खाली प्याला |
उसे पिलाना भर-भर मेरी, मद, मदिरा, बहुरंगी हाला |
कोई भी उस दिन न लौटे, प्यासा अपने मदिरालय से |
यदि तृप्त हुए सब तो पाऊंगा, सच्ची पावअन मधुशाला |
७१
मदिरा से नहला शव को, पहनाना प्यालों की माला |
बजवाना अर्थी के आगे, मेरी बहुरंगी मधुशाला |                
मेरे शव के पीछे रखना, सजा-धजा एक मदिरालय |
पीते, गाते  और नाचते, पहुँचे सच्ची मधुशाला |
७२
तुम न गम मातम मनाना, मेरे उस मृत प्याला |
जिसके संग में तुमने पी थी, भर-भर प्यारी जीवन हाला |
तुम श्रंगार कर सजना-धजना ओ मेरे जीवन साखी |
मैं समझ जाऊँगा हमने मिलकर, एक सजाई थी मधुशाला |
७३
मेरी चिता में घी न डालना, उसमें डालना तुम हाला |
पानी डाल ठंडा न करना, मदिरा से भड़काना ज्वाला |
जब तक चिता जले सब पीना, झूम-झूम पावन मदिरा |
और साथ सब मिल कर गाना, मेरी बहुरंगी मधुशाला |   
७४
अर्पण-तर्पण सब कुछ करना, तुम केवल मदिरा हाला |
तेरहवीं पर ना खुलवाना, गंगाजली का तुम प्याला |
सबके लिए खुलवाना उस दिन, सच्चा प्यारा एक मदिरालय |
सबकी तृप्ति से हुआ तृप्त, मैं पा जाऊँगा मधुशाला |
७५
यदि मुझे मिली पहले तृप्ति तो, मैं छोडूंगा पहले प्याला |
तुम भी पीछे-पीछे आना, पीकर अपनी जीवन हाला |
बेसब्री से इंतजार, तेरा करूँगा मैं साखी |
फिर से मिलेंगे हम दोनों, फिर से सजेगी मधुशाला |       
७६
शब्द बने रज जिनसे बनता, मेरी कविता का प्याला |
भरी हुई है जिसके अन्दर, कल्पित भावों की हाला |
कवि बन साखी पिला रहा,भर-भर सबको यह मदिरा |
पाठकगण सब पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला |
७७
धन्यवाद तेरा मदिरालय, धन्यवाद तेरा प्याला |
धन्यवाद सच्चे रिन्दों का, धन्यवाद तेरा हाला |
धन्यवाद है उस साखी का, पिला रहा जो सच्ची मदिरा |
न्यधवाद बस केवल मेरा, बाकी सब तेरा मधुशाला |
        

1 comment:

  1. आप अच्छा लिखते है, आपके ब्लाग पर आकर अच्छा लगा.... कृपया यहाँ पर आयें और समर्थक बन उत्तरप्रदेश ब्लोगर असोसिएसन का हैसला बढ़ाएं. आप आयेंगे तो हमें अच्छा लगेगा. हम आपका इंतजार करेंगे.....


    http://uttarpradeshbloggerassociation.blogspot.com

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