Monday, October 14, 2013

आधे-अधूरे

आधे-अधूरे
हर पुरुष,
चाहता है,
अपनी स्त्री में,
अलग-अलग,
हजारों नारियों की,
एक साथ,
विशेषता |
हर नारी, 
चाहती है,
अपने मर्द में,
अलग-अलग पुरुषों की,
एक साथ,
क्षमता |
जो नहीं सम्भव,
इस जग में,
किसी को भी,
वो चाहे द्रोपदी हो, या-
लीलामयी गोविन्दा |
इस जग में,
कोई भी नहीं होता है पूर्ण,
और ना ही होता है,
किसी में भी,
जो जैसा है,
उसके प्रति,
स्वीकार्य भाव,
इसीलिए,
भटकता रहता है,
वह सदा,
इधर से उधर,
जीवन भर,   
आधे-अधूरे सा |


Thursday, September 26, 2013

मूर्तिपूजा का रहस्य

          मूर्तिपूजा का रहस्य  
ईश्वर निराकार, निर्गुण, असीम, अनन्त व सर्वज्ञ है एवम् हम साकार, सगुण, ससीम, सान्त व अल्पज्ञ | ऐसी स्थिति में एक साधारण व्यक्ति अपना ईश्वर के साथ कैसे सम्बन्ध स्थापित करे, उसे कैसे समझे और कैसे उस सम्बन्ध को निरन्तर स्मरण रखे ? इस समस्या के समाधान के लिए जब हम ईश्वर को भी साकार, सगुण व ससीम बना लेते हैं तो वह हमें हमारे जैसा ही लगने लगता है, अतः उसके समीप बैठ, उसकी उपासना (उप=पास, आसन=बैठना) करना आसान हो जाता है | अमूर्त ईश्वर को मूर्त रूप देना ऐसे तो अज्ञान है किन्तु उपासना में हम इसी अज्ञान का सहारा लेकर ज्ञान की ओर उत्तरोत्तर बढने का प्रयास करते हैं |  
उपासना का आधार मुख्यरूप से प्रतिरूप, निदान व प्रतीक उपासना है | प्रतिरूप उपासना में हम जो भी शिल्प निर्माण करते हैं उसमें नवीन कुछ भी नहीं होता | उसमें केवल अपूर्व शिल्प की नक़ल भर होती है | जैसे सूर्य या चन्द्रमा ईश्वर ने बनाया है | यदि हम उनका चित्र या प्रतिमा बनाते हैं, तो यह उनका प्रतिरूप शिल्प हुआ | प्रतीक उपासना में हम देखते कुछ हैं और समझते कुछ हैं | उदाहरण के लिए जैसे देखते हैं हम तिरंगा झन्डा, परन्तु समझते हैं राष्ट्र का सम्मान | यदि कोई उस झंडे का अपमान करे तो हम समझते हैं कि वह हमारे राष्ट्र का अपमान कर रहा है | हमारे संविधान द्वारा उस तिरंगे कपडे को राष्ट्र-ध्वज घोषित कर देना मानो उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर देने जैसा है | अतः मूर्ति उपासक को अज्ञानी नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्ञान-अज्ञान का सम्बन्ध समझ से है और जब तक समझ ठीक है तब तक उसे ज्ञान hiही कहा जायगा, अज्ञान नहीं | हाँ, यदि हम उपासना में प्रतीक से उस वस्तु का बोध न कर पाएँ जिसका वह प्रतीक है तो फिर वह प्रतीक ही नहीं रह जाता | फिर उपासना भी उपासना नहीं रह जाती |
    जैसे हम किसी भी शुभ कार्य के पहिले विघ्नहर्ता विघ्नेश्वर, गणनायक गणेश की मूर्ति-पूजा करते हैं | यदि हम गणेश की मूर्ति में दर्शाए विभिन्न प्रतीकों को समझ उन पर अमल करें तो हमारा कार्य निश्चित रूप से सफल होगा अन्यथा वह एक कर्मकांड से अधिक कुछ नहीं रह जाता | इनकी मूर्ति में सुपडे से बड़े कान यह दर्शाते हैं कि किसी भी शुभ कार्य में सुनो सबकी मगर अन्दर सिर्फ सार या काम की बात ही जाने दो | अपनी नाक को सूंड सा लम्बा रखो अर्थात अपने मान-अपमान को सहन करो | एकदंत इस बात का प्रतीक है कि सभी को साथ लेकर चलो | छुपा हुआ व छोटा मुँह हमें मृदुभाषी व मितभाषी होने का संकेत देता है | छोटी-छोटी आँखें इस बात की ओर इंगित करती हैं कि छोटी-मोटी बातों को देखा-अनदेखा करो व सिर्फ मुख्य ध्येय पर ही ध्यान दो | मोटा पेट सभी आलोचनाओं को हजम करने की सीख देता है | बड़ा सिर विवेक का प्रतीक है | चूहे की सवारी अपने अहंकार को दबाये रखना बतलाता है | दूर्वा व लड्डू आने वाले सभी अतिथियों में समदर्शी भाव रखने की प्रेरणा देते हैं | यदि हम इन सभी बातों का ध्यान रख अपना कार्य करेंगे तो निश्चित रूप से हमारा कार्य निर्विघ्न रूप से पूर्ण होगा | तभी हमारा गणेश-पूजन सफल होगा | ये ही सभी गुण किसी भी राजा या नेता में भी होना चाहिए तभी वह एक सफल गणनायक बन सकता है | ‘मेनेजमेन्ट’ से जुड़े सभी लोगों के लिए भी यह एक गुरु-मन्त्र से कम नहीं है | इस प्रकार निदान (किसी समस्या का समाधान, निराकरण) उपासना में एक ही मूर्ति में विभिन्न प्रतीकों द्वारा किसी समस्या का पूर्ण समाधान बतलाया जाता है |
यदि कोई स्थूल प्रतीक के बिना ही सूक्ष्म पर चित्त को स्थिर रख सकने में समर्थ है तो उसे न मूर्ति की आवश्यकता है न अन्य किसी प्रतीक की |
  उपासना के लिए श्रध्दा एक बहुत आवश्यक घटक होता है | श्रद्धा भावना का नाम
है,जिसका सम्बन्ध ह्रदय से होता है | श्रद्धा वही होती है जो हमें हमारे
आध्यात्मिक मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ाने में मदद करती है | अतः हमें
श्रद्धा या तो उस अमूर्त परमात्मा के उस मूर्त रूप में रख अपनी उपासना
करनी चाहिए या फिर उस तत्वदर्शी, ईश्वरस्वरुप सतगुरु में जो हमें हमारे
गंतव्य तक पहुँचाने में मदद करता है | अतः इसके अलावा जो भी हम
करते है वह अन्धविश्वास ही होता है, श्रद्धा नहीं | श्रद्धा में तर्क नहीं चलता
क्योंकि यह बुद्धि का विषय नहीं है | यहाँ मैं-मेरा नहीं रहता बस आराध्य के
प्रति पूर्ण समर्पण का भाव ही रह जाता है | तभी वहाँ मिलन का गंगासागर
बन पाता है, एकत्व का कमल खिल पाता है | ऐसी श्रद्धा से कभी भी अनिष्ट
नहीं होता | मीरा, सूरदास, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस आदि इसी श्रेणी के
परमतत्व ज्ञाता थे |
  मूर्तिपूजा योग साधना या आध्यात्म की सीढी का पहला पायदान होता है | यह अहम् रूपी ‘मैं’ से ईश्वर रूपी ‘तू’ पर जाने के लिए एक अच्छा माध्यम है | जहाँ मेरा ‘मैं’, ईश्वर रूपी ‘तू’ में पूर्ण रूप से विलीन हो जाता है, तथा जब ऐसा हो पाता है तभी मूर्तिपूजा सार्थक हो पाती है | जब इसकी सार्थकता पूर्ण हो जाती है तब इसे छोड़ देना आवश्यक होता है, तभी हम अगले पायदान पर जा सकते हैं | यदि हम इसे ही सजाते-संवारते रहे तो फिर यहीं अटक जायेंगे और कहीं भी नहीं पहुँच पाएंगे सिर्फ जिंदगी भर मूर्तिपूजा ही करते रह जायेंगे, जो ‘गीता’ के अनुसार एक शास्त्र-सम्मत विधि न हो कर मनघडंत आडम्बर भर होता है | ऐसे मूढ़ लोग जब अपनी किसी मनोकामना के लिए मंदिर में जा मूर्ति के पैर छूते हैं तब भी वह उनके लिए एक पाषाण का टुकड़ा ही होती है और मनोकामना पूर्ण न होने पर जब वे ही लोग उसी मूरत को बुरा-भला कहते हैं या गाली देते हैं तब भी वह एक पाषाण का टुकड़ा ही होती है | ऐसे लोग सदा ही अपनी जिम्मेदारी, अपनी असफलता दूसरों पर ढोलने या लटकाने के लिए एक खूंटी ढूंढा करते हैं एवम् इसके लिए भगवान की मूर्ति से अच्छी खूंटी और क्या हो सकती है ? जैसे हमने पहली सीढ़ी में अमूर्त को मूर्त रूप दिया वैसे ही अगली सीढ़ी पर जाने के लिए हमें मूर्त से अमूर्त में जाना पड़ता है | जैसे हमने मूर्ति का निर्माण किया वैसे ही मूर्ति-भंजन करना भी जरुरी है वरना वह एक कर्मकांड से अधिक कुछ नहीं रह जायगा |
      किन्तु आज के इस युग में जब तक कोई एक सर्वमान्य, व्यावहारिक परन्तु शास्त्रीय मूर्ति-पूजा की पद्धति को न अपनाया जाय, तबतक समस्त प्रकृति व जन-कल्याण के लिए अन्य कोई भी पूजा निरर्थक ही होगी | किसी भी उपासना का अंतिम लक्ष्य उस निर्गुण-निराकार परमात्मा की उपलब्धि, उसमें समावेश या उससे एकत्व स्थापित करना होता है | मनुष्य-देह (कोई भी जीव कहना ज्यादा उपयुक्त होगा) में स्थित जीवात्मा, परमात्मा का ही अंश होता है | शास्त्रीय दृष्टी से आत्मा व परमात्मा एक ही हैं, उनमें कोई फर्क नहीं होता | अतः वह एकमात्र उपास्य ईश्वर है एवम् जिस देह में वह बैठा है वह एकमात्र प्रत्यक्ष मन्दिर | अतः हर मानव-देह ईश्वर का साक्षात् मंदिर ही होता है | यदि हम उसकी उपासना न कर सके तो अन्य किसी भी मंदिर में बिठाई पाषाण-मूर्ति की पूजा से कभी कोई उपकार नहीं हो सकता | जिस क्षण हम प्रत्येक मनुष्य-देह के सन्मुख भक्तिभाव से खड़े हो, वास्तव में उसमें ईश्वर-दर्शन कर सकेंगे व मैं-मेरा व तू-तेरा के भाव से मुक्त हो उससे एकत्व-भाव स्थापित कर सकेंगे, उसी क्षण हम सभी बन्धनों से मुक्त हो परमपद पा लेंगे | तभी हम सच्चे प्रेम को समझ, प्राणीमात्र से प्रेम कर सकेंगे | यही सबसे अधिक व्यावहारिक, शास्त्रीय व प्रत्यक्ष फल देने वाली उपासना है | इसका किसी भी मत-मतान्तर से कोई सम्बन्ध नहीं है | चूँकि हर मत प्राणी मात्र में प्रेमभाव सिखलाता है अतः कहीं कोई झगडा-विवाद भी नहीं हो सकता | तथा इस तरह हर कोई उत्तरोत्तर प्रगति कर अपने परमलक्ष्य की प्राप्ति भी कर सकता है | तभी यह संसार रहने के लिए सारगर्भित हो पाएगा |          


Sunday, September 22, 2013

साम्प्रदायिकता

साम्प्रदायिकता
मेरा ईश्वर सबसे श्रेष्ठ,
बाकी सबका एकदम निष्कृष्ट !
इसका प्रमाण ?
आओ आपस में लड़ लें,
वाद से, विवाद से,
हथियार से, उन्माद से,
रक्त की धार से....
जो जीतेगा उसका ही,
वह,
सर्वव्याप्त, सर्व कल्याणकारी,
आनन्दमयी, प्रेमस्वरूप ईश्वर,
होगा सबसे श्रेष्ठ !!!???


Monday, April 1, 2013

ज्ञान


      ज्ञान
गधे पर लादे गए नमक सा,
जानकारियों के पाण्डित्य का पुलन्दा,
जिससे गधा तो अपनी जान छुड़ाना चाहता है,  
क्योंकि वह जानता है, कि-
यह तो है केवल एक बोझा |
लेकिन,
जिससे स्वयं को आभूषित समझ,
अपने आप को समझदार समझने वाला हर इन्सान,
उसे,
हीरे-जवाहरात सा दिन-रात ढोता,
जिससे वह सदैव ही,
सिर्फ़ व सिर्फ़ दबा होता,
क्या यही सच में ज्ञान होता ?
या,
जब हम,
जानकारीयों के इस नमक को,
प्रेम की पावन गंगा में गला,
स्वयं को एकदम खाली हुआ पाते,
और फिर,
उसमें डुबकियाँ लगा,
सत्य के असली हीरे पाते,
सच्चा ज्ञान होता !!! 

Sunday, March 3, 2013


तुम बिन...
          तुम संग.....

मेरे दिल में आए,
भावों के तूफानों को,
शब्दों में बाँधने का,
एक नाकाम,
अदना सा प्रयास |
बाकी के भावों को,
मेरे नयन,
मौन ही कर देंगे बयाँ तुमको |
करता हूँ यह,
नन्हाँ सा,
भावों का तोहफ़ा,
तुम्हारे जन्म-दिवस पर,
समर्पित तुमको |


  वैलंटाइनविरह
मेरी वैलंटाइन आज, वैलंटाइन-दिवस पर,
ऋषिकेश चली गई, मुझे अकेला छोड़ कर |
छोड़ गई आश्रम सा घर और मेरा मन-मन्दिर,
भटकने पत्थर के मन्दिर, आश्रमों की दुकान दर-दर,
परेशान है वह बिना ही किसी वजह,
ढूंढने वह वैलंटाइन जो होता हर जगह |
जहाँ प्यार का वास होता, वहीं तेरा घर व मन्दिर,
ऐसी सदबुद्धि देना, उसे मेरे परमेश्वर |
भुला नहीं कहते उसे जो लौट आए शाम को घर,
तेरे दिल के द्वार का [द्वारका] दास, करेगा तेरा हरदम स्वागत |

                   अधूरा प्यार
प्यार में मिल साथ रहना, अच्छा सभी को है लगता,
विरह जिसने नहीं जाना, अधूरा प्यार है उसका |
विरह राधा का था परिपक्व, विरह गोपियों ने जीया था,
विरह अपना भुलाने को, कृष्ण करते गए शादी-
मगर न शान्त हो पाया, जो विरह अन्दर सुलगता था |
विरह लैला व मजनूं का, विरह शिरी-फरहाद का भी था,
बनाया ताज विरह में, शाहजहाँ चाहे शहंशाह था |
विरह में निकले आँसू से, बने धरती पे सब दरिया,
विरही की वेदना, आहें, रुदन को, सब समझते एक कविता |
मिलन बन्धन है, एक सीमा, रहे बस एक तक सीमित,
विरह में हर तरफ उसकी, हमेशा झाँई है दिखती |
मिलन कंचन होता तभी, जब विरह की आग में जलता,
विरह जिसने नहीं जीया, अधूरा प्यार है उसका |

     


     पूर्णांगिनी
मैं अधूरा सा भटकता फिर रहा था,
एक भ्रमर सा |
कभी एक तो कभी दूसरे,
रंग-बिरंगे फूल पर,
मचलता था मन मेरा |
कभी एक तो कभी दूसरी,
खुशबू लुभाती थी मुझे |
मैं असमंजस में पड़ा,
यों ही भटकता फिर रहा था,
बस अधूरा |
फिर मिली तुम,
और वे रंग-सौरभ,
जिन्हें मैं,
खोजता फिर रहा था,
सब तुममें मिल गए |
और फिर जो,
मैं अधूरा सा था अब तक,
अचानक ही पूर्णता पा गया |
इसलिए,
वे लोग जो कहते तुम्हें अर्धांगिनी,
हैं गलत,
सत्यता में,
तुम तो हो,
बस मेरी पूर्णांगिनी |

अधूरा प्यार
प्यार में मिल साथ रहना, अच्छा सभी को है लगता,
विरह जिसने नहीं जाना, अधूरा प्यार है उसका |
विरह राधा का था परिपक्व, विरह गोपियों ने जीया था,
विरह अपना भुलाने को, कृष्ण करते गए शादी-
मगर न शान्त हो पाया, जो विरह अन्दर सुलगता था |
विरह लैला व मजनूं का, विरह शिरी-फरहाद का भी था,
बनाया ताज विरह में, शाहजहाँ चाहे शहंशाह था |
विरह में निकले आँसू से, बने धरती पे सब दरिया,
विरही की वेदना, आहें, रुदन को, सब समझते एक कविता |
मिलन बन्धन है, एक सीमा, रहे बस एक तक सीमित,
विरह में हर तरफ उसकी, हमेशा झाँई है दिखती |
मिलन कंचन होता तभी, जब विरह की आग में जलता,
विरह जिसने नहीं जीया, अधूरा प्यार है उसका |


पूर्णांगिनी
मैं अधूरा सा भटकता फिर रहा था,
एक भ्रमर सा |
कभी एक तो कभी दूसरे,
रंग-बिरंगे फूल पर,
मचलता था मन मेरा |
कभी एक तो कभी दूसरी,
खुशबू लुभाती थी मुझे |
मैं असमंजस में पड़ा,
यों ही भटकता फिर रहा था,
बस अधूरा |
फिर मिली तुम,
और वे रंग-सौरभ,
जिन्हें मैं,
खोजता फिर रहा था,
सब तुममें मिल गए |
और फिर जो,
मैं अधूरा सा था अब तक,
अचानक ही पूर्णता पा गया |
इसलिए,
वे लोग जो कहते तुम्हें अर्धांगिनी,
हैं गलत,
सत्यता में,
तुम तो हो,
बस मेरी पूर्णांगिनी


क्या यही प्यार है
जिन्दगी की धुवांधार बारिश में,
कमल पर पड़ी ओस की बूंद सा,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार......?

जिन्दगी के काँटों के बिछोने में,
फूलों की पखुडियों सा,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार........?

जिन्दगी के साफ-सुथरे मरुस्थल में,
गुलाबों से महकते गुलिस्ताँ सा,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार.........?

खुदगर्ज जीवन में,
खुद को भी खुद का
नहीं अहसास,
क्या यही है प्यार..........?

जिन्दगी की अंधी दौड में,
खुशनुमा ठहराव का,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार..........?

दोस्तों की भीड़ में भी,
घुटन,
अकेले, खालीपन का,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार..........?

न आगाज का पता,
न अन्जाम का ख्याल,
हर पल, हर जगह,
बस होता है,
तेरा ही अहसास,
क्या यही है प्यार.........?


       विरह-ज्वर
बसंती मदमास में, दूर क्यों मेरा सनम,
कौन सा यह ज्वर है जिससे, जल रहा मेरा तन व मन |

उगते व अस्त होते, सूर्य की रक्तिम किरण,
झूलसा रही क्यों याद बन, फूल सा नाजुक बदन |

रिमझिम फुहार व सूर्य किरणों का मिलन,
है सप्तरंगी इन्द्रधनुष पर, छाया क्यों तम दिल के गगन |

मधुर यादें अपने मिलन की, कर रही बैचेन हरदम,
क्या यही तडफन, तपन, है विरह-ज्वर मेरे सनम |


     मेरी शायरी
चुराए ओठों से जो तेरे मैंने,
वो अल्फाज़ ही बस मेरी शायरी है |
जो नज़रों से तेरी चुरा के काजल,
लिखे हर्फ़ वो ही मेरी शायरी है |
हँसी तेरी सुर बन सजाती है जिसको,
व अदा थिरके बन ताल, मेरी शायरी है |
तुम्हारा तबस्सुम, तुम्हारा तरन्नुम,
तुम्हारी महक ही, मेरी शायरी है |
तेरे श्वासों की लय व दिल की हर धड़कन से,
जहाँ लब्ज़ धड़के, मेरी शायरी है |
तुम्हारा मिलन व जुदाई तुम्हारी,
हर अहसास तेरा, मेरी शायरी है |
तेरी शोखियाँ, हुस्न, संजीदगी का,
बयाँ करना ही बस, मेरी शायरी है |
मेरी शायरी में, मेरा कुछ भी नहीं है,
तेरी बन्दगी है, तेरी आशिकी है |


दो बदन एक जान
  एक खबर-
ऋषिकेश में बारिश, शीत-लहर का प्रकोप  |
मुम्बई में फिर से, ठण्ड का हुआ जोर |
  खुलासा-
मेरे मन का विरह रुदन, बरस रहा है ऋषिकेश में,
उसकी ठंडी आहों से, सिहर रहा मैं भी मुम्बई में |
हम दूर-दूर पर फिर भी कितने पास-पास में, साथ-साथ में,
दो बदन हो गए एक जान, तीस साल में |


ईश्वर की खोज  
वे कुछ दिनों ईश्वर की खोज में, हो गई हैं वानप्रस्थी,
उन्हें लौटना पड़ेगा फिर घर, सँभालने अपनी गृहस्थी |
खेंच ही लाएगा उनको, ये जो हमारा प्यार है,
क्योंकि ईश्वर वहीं होता, जहाँ सच्चा प्यार है |      


               पत्नी बिछोह
मेरी प्रेयसी मेरी पत्नी, मेरे सब दुखों की हरनी,
गई हो ऋषिकेश तुम जबसे, मेरा वनवास हुआ तब से,
मैं विरह-ज्वाला में जलता, हरपल ही एक युग सा लगता,
मैं दुआ मांगता हूँ रब से, नहीं किसी को ये पल दे,
तुम बिन सुना-सुना सा है यह घर, बिन पानी के जैसे हो नल |
आज दिवस आने का उसका, मैं बाट जो रहा हरपल उसका,
एक चमक मेरी आँखों में थी, दरवाजे पर नज़र गड़ी थी,
सोच रहा जब वह आएगी, यह करूँगा, वह करूँगा,
जो वह बोले वही करूँगा, नाजो-नखरे सहन करूँगा,
बाहों में उसको भार लूँगा, न जाने का वादा लूँगा,
मैं विनय कर रहा था प्रभु से, सब विपदा मेरी अब तू हर ले,
जब माँग रहा था मैं यह प्रभु से, इक स्वर आया दरवाजे से,
वह खट-खट नहीं थी दरवाजे की, छिड़ी थी वीणा मेरे दिल की,
मैं बेसुध दौड़ा दरवाजे तक, खोला उसको एक बुत बन बस,
खुलते ही उसने मुझको, कर लिया पूरा आलिंगनबद्ध,
मैं इक ठंडी साँस ही ले पाया, अपने नयनों को बन्द पाया,
फिर खोली आँखें मैंने जब, अवाक् हो गया मूर्तिवत बस,
वहाँ नहीं दिखाता कोई था, वह तो था बस हवा का झोंका |


विरही की चाह

दावानल सी बन गई, विरह ज्वाला की जलन,
जिसमें निरन्तर जल रहा, आज मेरा तन व मन |

जेष्ठ की धूप सा, तप रहा मेरा गुल-बदन,
काठ बनता वृक्ष से, जो था खिला जैसे बसन्त |

सूखे कुए, पोखरों से, हो गए मेरे नयन,
सांय-सांय गूंजता, विरह का रुखा रुदन |

मरुस्थल सा बन गया, जो था कभी जीवन चमन,
सूखे-अकाल सी हड्डियाँ, हो गया कृशकाय यह तन |

जी रहा मृतप्राय जीवन, एक ही ले चाह इस मन,
कभी तो आएगा बसन्त, उठेगी एक टीस प्रिय-मन |

सुन पपीहे सी मेरी रटन, लौट आएगी प्रियतम,
जिससे मेरा यह मरू-जीवन, खिल जायगा बन एक गुलशन |


              मुक्तक
हर खुशी खोखली मालूम होती है,
हर आँख गम की परछाई मालूम होती है,
ये जो सरक आते हैं, बेकाबू आँसू कभी-कभी,
बस एक वही, असलियत मालूम होती है |

तेरी जुदाई के गम ने,
मुझे शायर बना दिया |
इसके अलावा भी थे काम बहुतेरे, पर-
तेरे प्यार ने निठल्ला बना दिया


करे कोई भरे कोई
तुम गंगा में जब डुबकी लेती, मुझे महसूस होती सिरहन यहाँ,
तुम्हें वानप्रस्थ का रोग लगा, मैं भोग रहा सन्यास यहाँ,
तुम जिस विरह ज्वाल में जलती हो, मैं उसकी तपन से तडफूँ यहाँ,
हम अलग-अलग दो दिखते लेकिन, हैं दो बदन पर एक जान |  
यही वजह लगती जिस कारण, तुम करो वहाँ मैं भरूँ यहाँ |

    [प्रेम गली अति सांकडी, जा में दो न समाय]


विरह का अन्तिम दिवस
विरह का अन्तिम दिवस, पर-
लगे, जैसे बचे हों कई बरस |
काटे नहीं कटता ये अन्तिम वक्त,
हो रही है घबराहट,
बढ़ रही मेरे दिल की धक-धक |
चाहूँ शान्त रखना मैं उसे,
पर, वश में नहीं मेरे, मैं हूँ परवश |
विरह का अन्तिम दिवस,
करता विवश, करता विवश |
मैं सो रहा या जागता,
इसकी नहीं मुझको खबर,
चारों तरफ क्या हो रहा,
मैं हूँ इससे बेखबर,
चढ़ा हुआ मुझे विरह ज्वर,
बस यही केवल एक है सच |
विरह का अन्तिम दिवस,
करता विवश, करता विवश |


     मेरी सब्र का इम्तहान

यह बसन्त मधुमास सबका, क्यों पतझड बना मेरे जीवन का |
मेरे सभी मधुर ख्वाब, बिखर रहे हो पात-पात |
यादों के झोंके हजार, मेरा दिल सह रहा चुपचाप |
तुम्हारे विरह में यह, कैसी हुई मनोदशा |
यह बसन्त मधुमास सबका........
फूले-फले उपवन में, मेरा मन जैसे तना सपाट |
तेरे मधुर ख्यालों में, दिन कटे न कटे रात |
अब तो मुझको यहाँ, कुछ भी नहीं आता है रास |
लगता है प्रभु ले रहे, इम्तहान मेरे सब्र का |
यह बसन्त मधुमास सबका.........
सुना है आती बसन्त, सदा ही पतझड के बाद |
बस उसका ही कर रहा, धीरज धर मैं इन्तजार |
कहते हैं धीरज का फल, होता है मीठा सदा |
यह बसन्त मधुमास सबका....



सभी की कहानी मेरी जुबानी
बात सबकी, हाल सबके, शब्द मेरे,
जीवन में विरह-मिलन, सभी का आनन्द ले ले |
प्रेम के ये दो पहलु, इनमें न भेद-भाव कर,
जो भी मिले प्रेम से, उसको स्वीकार कर |
विरह की ज्वाला में सुलगते हैं सभी,
बिन लगे आग दोनों तरफ, होता नहीं है मिलन भी |
एक का दर्द दीखता, दूसरे के आँसुओं में,
प्यार की खुशियाँ झलकती, एक-दूजे के नयन में |
नींद सभी की उड़ जाती, है विरह में,
सोना नहीं कोई चाहता, मिलन-पल में |
श्वास लेने की भी सुध, नहीं होती है विरह में,
श्वास थम सी है जाती, मिलन के अनमोल पल में |
विरह में पथराती आँखें, मिलन में दीखता नहीं कुछ,
प्रेम तो होता है अन्धा, सूझता उसमें नहीं कुछ |
नींद गायब, भूख गायब, कृशकाय, पीला बदन,
दोनों ही हैं प्रेम-रोगी, चाहे विरह चाहे मिलन |
ख्याल उनका ही रहता, विरह-मिलन हर हाल में,
अन्तर आ ही जाता है, दोनों ही की चाल में |
विरह-मिलन दोनों ही, जकड़े हैं प्रेमजाल में,
एक सा ही भोगना, होता है दोनों हाल में |
सहन करना ही है नियति, यदि तेरा प्रेम सच्चा,
अन्यथा वह एक दिखावा, एक सौदा, समझौता |
बात सबकी, हाल सबके, शब्द मेरे,
जीवन में विरह-मिलन, सभी का आनन्द ले ले |


प्रेम की विजय
जब,
तुम न थी,
तो थे-
बैचेनियों के अँधेरे,
बिछोह का रुदन,
क्रंदन करती आहें,
इन्तजार करता वक्त,
अपलक, ठिठकी आँखें,
नींद की हड़ताल,
करवटों का साम्राज्य,
और तुमसे मिलने के ख्वाब |
और, अब,
जब,
तुम लौट आई हो,
तो, तुम्हारे आने से,
बैचेनियों के अँधेरे,
न जाने कहाँ गुम हो गए,
करवटें सोने लगी,
आँसुओं ने स्वभाव बदला,
गम से अब खुशी में,
ख्वाब सी लगती थी जो तुम,
अब असलियत हो गई |
विरह-मिलम से दो पहलुओं की जंग में,
प्रेम की जय हो गई |  


मिलन
जब,
तुम मिली,
तो-
नयन ठहरे,
थम गई साँसें,
रुक गई धड़कन,
और,
समय भी,
अपनी,
कब्र के ताबूत में,
इन्तजार करने लगा |


कायाकल्प  
मैं ताड़ की तरह खड़ा था अकेला  तनहा,
लम्बा, सूखा, सपाट, नंगा सा बस तना |
तुमने आ लचीली लता सा मुझको लपेटा,
अपनी प्यार की ओढनी से मुझको ढका |
फिर रंगबिरंगे फूल खिले, हर तरफ महक छाई,
पूरी बगिया में जिससे एक रोनक आई |
मैंने तो बस तुम्हें, थोड़ा सा सहारा भर दिया था,
तुमने तो मेरा कायाकल्प ही कर दिया |
और मेरा पूरा जीवन ही, खुशियों से भर दिया,
धन्यवाद रोशन बाटी का, कैसे कर पाएगा यह दीया |


सच्चा प्यार
सूर्य सी ऊष्मा, पानी सी ठण्डक,
फूलों सी खुशबू, हवा चंचल,
यदि महसूस करो तुम |
किसी का साथ, किसी की मुलाकात,
किसी की धड़कन, किसी का आभास,
यदि मससूस करो तुम |
दूर हो या पास, सच हो या ख्वाब,
किसी की याद, बस एक अहसास,
यदि महसूस करो तुम |
रात में तन्हाई, दिन में इन्तजार,
मिलने से जिसके, एक सच्चा करार,
यदि महसूस करो तुम |
तो यही वह प्यार,
जिसकी थी तुम्हें तलाश,
इसे न खोना कभी भी तुम |


प्यार 
वस्तु नहीं होता है प्यार, न मालिकी न अधिकार,
न डरा न दौलत से, यह खजाना पा सकते |
प्रेम नाम लुटाने का, बस अपने को मिटाने का,
जो बदले में कुछ न माँगे, बस निस्वार्थ देना जाने |
चाहे विरह, चाहे मिलन, रहे ह्रदय में जो हरदम,
न व्याख्या न विश्लेषण, वहीं प्यार का सच्चा चमन |


विवाह एक यज्ञ
विवाह,
एक यज्ञ |
जिसमें दुल्हन जैसे लकड़ी,
दूल्हा होता जैसे घृत |
दोनों जलते साथ-साथ बन गृहस्थ |
जब पड़े त्याग की समिधा इसमें,
व प्यार के मन्त्र हों उच्चार |
तब चहुँ दिशा उजियारा होता,
खुशबू से भर जाता घर |
तभी सफल होता यह यज्ञ |
वरना कलह की ज्वाला जलती,
करते हुए सदा तड़-तड़ |
जिसका अहम्, स्वार्थ का धुआँ,
देता घुटन व नफरत बस |