Sunday, March 3, 2013


तुम बिन...
          तुम संग.....

मेरे दिल में आए,
भावों के तूफानों को,
शब्दों में बाँधने का,
एक नाकाम,
अदना सा प्रयास |
बाकी के भावों को,
मेरे नयन,
मौन ही कर देंगे बयाँ तुमको |
करता हूँ यह,
नन्हाँ सा,
भावों का तोहफ़ा,
तुम्हारे जन्म-दिवस पर,
समर्पित तुमको |


  वैलंटाइनविरह
मेरी वैलंटाइन आज, वैलंटाइन-दिवस पर,
ऋषिकेश चली गई, मुझे अकेला छोड़ कर |
छोड़ गई आश्रम सा घर और मेरा मन-मन्दिर,
भटकने पत्थर के मन्दिर, आश्रमों की दुकान दर-दर,
परेशान है वह बिना ही किसी वजह,
ढूंढने वह वैलंटाइन जो होता हर जगह |
जहाँ प्यार का वास होता, वहीं तेरा घर व मन्दिर,
ऐसी सदबुद्धि देना, उसे मेरे परमेश्वर |
भुला नहीं कहते उसे जो लौट आए शाम को घर,
तेरे दिल के द्वार का [द्वारका] दास, करेगा तेरा हरदम स्वागत |

                   अधूरा प्यार
प्यार में मिल साथ रहना, अच्छा सभी को है लगता,
विरह जिसने नहीं जाना, अधूरा प्यार है उसका |
विरह राधा का था परिपक्व, विरह गोपियों ने जीया था,
विरह अपना भुलाने को, कृष्ण करते गए शादी-
मगर न शान्त हो पाया, जो विरह अन्दर सुलगता था |
विरह लैला व मजनूं का, विरह शिरी-फरहाद का भी था,
बनाया ताज विरह में, शाहजहाँ चाहे शहंशाह था |
विरह में निकले आँसू से, बने धरती पे सब दरिया,
विरही की वेदना, आहें, रुदन को, सब समझते एक कविता |
मिलन बन्धन है, एक सीमा, रहे बस एक तक सीमित,
विरह में हर तरफ उसकी, हमेशा झाँई है दिखती |
मिलन कंचन होता तभी, जब विरह की आग में जलता,
विरह जिसने नहीं जीया, अधूरा प्यार है उसका |

     


     पूर्णांगिनी
मैं अधूरा सा भटकता फिर रहा था,
एक भ्रमर सा |
कभी एक तो कभी दूसरे,
रंग-बिरंगे फूल पर,
मचलता था मन मेरा |
कभी एक तो कभी दूसरी,
खुशबू लुभाती थी मुझे |
मैं असमंजस में पड़ा,
यों ही भटकता फिर रहा था,
बस अधूरा |
फिर मिली तुम,
और वे रंग-सौरभ,
जिन्हें मैं,
खोजता फिर रहा था,
सब तुममें मिल गए |
और फिर जो,
मैं अधूरा सा था अब तक,
अचानक ही पूर्णता पा गया |
इसलिए,
वे लोग जो कहते तुम्हें अर्धांगिनी,
हैं गलत,
सत्यता में,
तुम तो हो,
बस मेरी पूर्णांगिनी |

अधूरा प्यार
प्यार में मिल साथ रहना, अच्छा सभी को है लगता,
विरह जिसने नहीं जाना, अधूरा प्यार है उसका |
विरह राधा का था परिपक्व, विरह गोपियों ने जीया था,
विरह अपना भुलाने को, कृष्ण करते गए शादी-
मगर न शान्त हो पाया, जो विरह अन्दर सुलगता था |
विरह लैला व मजनूं का, विरह शिरी-फरहाद का भी था,
बनाया ताज विरह में, शाहजहाँ चाहे शहंशाह था |
विरह में निकले आँसू से, बने धरती पे सब दरिया,
विरही की वेदना, आहें, रुदन को, सब समझते एक कविता |
मिलन बन्धन है, एक सीमा, रहे बस एक तक सीमित,
विरह में हर तरफ उसकी, हमेशा झाँई है दिखती |
मिलन कंचन होता तभी, जब विरह की आग में जलता,
विरह जिसने नहीं जीया, अधूरा प्यार है उसका |


पूर्णांगिनी
मैं अधूरा सा भटकता फिर रहा था,
एक भ्रमर सा |
कभी एक तो कभी दूसरे,
रंग-बिरंगे फूल पर,
मचलता था मन मेरा |
कभी एक तो कभी दूसरी,
खुशबू लुभाती थी मुझे |
मैं असमंजस में पड़ा,
यों ही भटकता फिर रहा था,
बस अधूरा |
फिर मिली तुम,
और वे रंग-सौरभ,
जिन्हें मैं,
खोजता फिर रहा था,
सब तुममें मिल गए |
और फिर जो,
मैं अधूरा सा था अब तक,
अचानक ही पूर्णता पा गया |
इसलिए,
वे लोग जो कहते तुम्हें अर्धांगिनी,
हैं गलत,
सत्यता में,
तुम तो हो,
बस मेरी पूर्णांगिनी


क्या यही प्यार है
जिन्दगी की धुवांधार बारिश में,
कमल पर पड़ी ओस की बूंद सा,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार......?

जिन्दगी के काँटों के बिछोने में,
फूलों की पखुडियों सा,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार........?

जिन्दगी के साफ-सुथरे मरुस्थल में,
गुलाबों से महकते गुलिस्ताँ सा,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार.........?

खुदगर्ज जीवन में,
खुद को भी खुद का
नहीं अहसास,
क्या यही है प्यार..........?

जिन्दगी की अंधी दौड में,
खुशनुमा ठहराव का,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार..........?

दोस्तों की भीड़ में भी,
घुटन,
अकेले, खालीपन का,
एक अहसास,
क्या यही है प्यार..........?

न आगाज का पता,
न अन्जाम का ख्याल,
हर पल, हर जगह,
बस होता है,
तेरा ही अहसास,
क्या यही है प्यार.........?


       विरह-ज्वर
बसंती मदमास में, दूर क्यों मेरा सनम,
कौन सा यह ज्वर है जिससे, जल रहा मेरा तन व मन |

उगते व अस्त होते, सूर्य की रक्तिम किरण,
झूलसा रही क्यों याद बन, फूल सा नाजुक बदन |

रिमझिम फुहार व सूर्य किरणों का मिलन,
है सप्तरंगी इन्द्रधनुष पर, छाया क्यों तम दिल के गगन |

मधुर यादें अपने मिलन की, कर रही बैचेन हरदम,
क्या यही तडफन, तपन, है विरह-ज्वर मेरे सनम |


     मेरी शायरी
चुराए ओठों से जो तेरे मैंने,
वो अल्फाज़ ही बस मेरी शायरी है |
जो नज़रों से तेरी चुरा के काजल,
लिखे हर्फ़ वो ही मेरी शायरी है |
हँसी तेरी सुर बन सजाती है जिसको,
व अदा थिरके बन ताल, मेरी शायरी है |
तुम्हारा तबस्सुम, तुम्हारा तरन्नुम,
तुम्हारी महक ही, मेरी शायरी है |
तेरे श्वासों की लय व दिल की हर धड़कन से,
जहाँ लब्ज़ धड़के, मेरी शायरी है |
तुम्हारा मिलन व जुदाई तुम्हारी,
हर अहसास तेरा, मेरी शायरी है |
तेरी शोखियाँ, हुस्न, संजीदगी का,
बयाँ करना ही बस, मेरी शायरी है |
मेरी शायरी में, मेरा कुछ भी नहीं है,
तेरी बन्दगी है, तेरी आशिकी है |


दो बदन एक जान
  एक खबर-
ऋषिकेश में बारिश, शीत-लहर का प्रकोप  |
मुम्बई में फिर से, ठण्ड का हुआ जोर |
  खुलासा-
मेरे मन का विरह रुदन, बरस रहा है ऋषिकेश में,
उसकी ठंडी आहों से, सिहर रहा मैं भी मुम्बई में |
हम दूर-दूर पर फिर भी कितने पास-पास में, साथ-साथ में,
दो बदन हो गए एक जान, तीस साल में |


ईश्वर की खोज  
वे कुछ दिनों ईश्वर की खोज में, हो गई हैं वानप्रस्थी,
उन्हें लौटना पड़ेगा फिर घर, सँभालने अपनी गृहस्थी |
खेंच ही लाएगा उनको, ये जो हमारा प्यार है,
क्योंकि ईश्वर वहीं होता, जहाँ सच्चा प्यार है |      


               पत्नी बिछोह
मेरी प्रेयसी मेरी पत्नी, मेरे सब दुखों की हरनी,
गई हो ऋषिकेश तुम जबसे, मेरा वनवास हुआ तब से,
मैं विरह-ज्वाला में जलता, हरपल ही एक युग सा लगता,
मैं दुआ मांगता हूँ रब से, नहीं किसी को ये पल दे,
तुम बिन सुना-सुना सा है यह घर, बिन पानी के जैसे हो नल |
आज दिवस आने का उसका, मैं बाट जो रहा हरपल उसका,
एक चमक मेरी आँखों में थी, दरवाजे पर नज़र गड़ी थी,
सोच रहा जब वह आएगी, यह करूँगा, वह करूँगा,
जो वह बोले वही करूँगा, नाजो-नखरे सहन करूँगा,
बाहों में उसको भार लूँगा, न जाने का वादा लूँगा,
मैं विनय कर रहा था प्रभु से, सब विपदा मेरी अब तू हर ले,
जब माँग रहा था मैं यह प्रभु से, इक स्वर आया दरवाजे से,
वह खट-खट नहीं थी दरवाजे की, छिड़ी थी वीणा मेरे दिल की,
मैं बेसुध दौड़ा दरवाजे तक, खोला उसको एक बुत बन बस,
खुलते ही उसने मुझको, कर लिया पूरा आलिंगनबद्ध,
मैं इक ठंडी साँस ही ले पाया, अपने नयनों को बन्द पाया,
फिर खोली आँखें मैंने जब, अवाक् हो गया मूर्तिवत बस,
वहाँ नहीं दिखाता कोई था, वह तो था बस हवा का झोंका |


विरही की चाह

दावानल सी बन गई, विरह ज्वाला की जलन,
जिसमें निरन्तर जल रहा, आज मेरा तन व मन |

जेष्ठ की धूप सा, तप रहा मेरा गुल-बदन,
काठ बनता वृक्ष से, जो था खिला जैसे बसन्त |

सूखे कुए, पोखरों से, हो गए मेरे नयन,
सांय-सांय गूंजता, विरह का रुखा रुदन |

मरुस्थल सा बन गया, जो था कभी जीवन चमन,
सूखे-अकाल सी हड्डियाँ, हो गया कृशकाय यह तन |

जी रहा मृतप्राय जीवन, एक ही ले चाह इस मन,
कभी तो आएगा बसन्त, उठेगी एक टीस प्रिय-मन |

सुन पपीहे सी मेरी रटन, लौट आएगी प्रियतम,
जिससे मेरा यह मरू-जीवन, खिल जायगा बन एक गुलशन |


              मुक्तक
हर खुशी खोखली मालूम होती है,
हर आँख गम की परछाई मालूम होती है,
ये जो सरक आते हैं, बेकाबू आँसू कभी-कभी,
बस एक वही, असलियत मालूम होती है |

तेरी जुदाई के गम ने,
मुझे शायर बना दिया |
इसके अलावा भी थे काम बहुतेरे, पर-
तेरे प्यार ने निठल्ला बना दिया


करे कोई भरे कोई
तुम गंगा में जब डुबकी लेती, मुझे महसूस होती सिरहन यहाँ,
तुम्हें वानप्रस्थ का रोग लगा, मैं भोग रहा सन्यास यहाँ,
तुम जिस विरह ज्वाल में जलती हो, मैं उसकी तपन से तडफूँ यहाँ,
हम अलग-अलग दो दिखते लेकिन, हैं दो बदन पर एक जान |  
यही वजह लगती जिस कारण, तुम करो वहाँ मैं भरूँ यहाँ |

    [प्रेम गली अति सांकडी, जा में दो न समाय]


विरह का अन्तिम दिवस
विरह का अन्तिम दिवस, पर-
लगे, जैसे बचे हों कई बरस |
काटे नहीं कटता ये अन्तिम वक्त,
हो रही है घबराहट,
बढ़ रही मेरे दिल की धक-धक |
चाहूँ शान्त रखना मैं उसे,
पर, वश में नहीं मेरे, मैं हूँ परवश |
विरह का अन्तिम दिवस,
करता विवश, करता विवश |
मैं सो रहा या जागता,
इसकी नहीं मुझको खबर,
चारों तरफ क्या हो रहा,
मैं हूँ इससे बेखबर,
चढ़ा हुआ मुझे विरह ज्वर,
बस यही केवल एक है सच |
विरह का अन्तिम दिवस,
करता विवश, करता विवश |


     मेरी सब्र का इम्तहान

यह बसन्त मधुमास सबका, क्यों पतझड बना मेरे जीवन का |
मेरे सभी मधुर ख्वाब, बिखर रहे हो पात-पात |
यादों के झोंके हजार, मेरा दिल सह रहा चुपचाप |
तुम्हारे विरह में यह, कैसी हुई मनोदशा |
यह बसन्त मधुमास सबका........
फूले-फले उपवन में, मेरा मन जैसे तना सपाट |
तेरे मधुर ख्यालों में, दिन कटे न कटे रात |
अब तो मुझको यहाँ, कुछ भी नहीं आता है रास |
लगता है प्रभु ले रहे, इम्तहान मेरे सब्र का |
यह बसन्त मधुमास सबका.........
सुना है आती बसन्त, सदा ही पतझड के बाद |
बस उसका ही कर रहा, धीरज धर मैं इन्तजार |
कहते हैं धीरज का फल, होता है मीठा सदा |
यह बसन्त मधुमास सबका....



सभी की कहानी मेरी जुबानी
बात सबकी, हाल सबके, शब्द मेरे,
जीवन में विरह-मिलन, सभी का आनन्द ले ले |
प्रेम के ये दो पहलु, इनमें न भेद-भाव कर,
जो भी मिले प्रेम से, उसको स्वीकार कर |
विरह की ज्वाला में सुलगते हैं सभी,
बिन लगे आग दोनों तरफ, होता नहीं है मिलन भी |
एक का दर्द दीखता, दूसरे के आँसुओं में,
प्यार की खुशियाँ झलकती, एक-दूजे के नयन में |
नींद सभी की उड़ जाती, है विरह में,
सोना नहीं कोई चाहता, मिलन-पल में |
श्वास लेने की भी सुध, नहीं होती है विरह में,
श्वास थम सी है जाती, मिलन के अनमोल पल में |
विरह में पथराती आँखें, मिलन में दीखता नहीं कुछ,
प्रेम तो होता है अन्धा, सूझता उसमें नहीं कुछ |
नींद गायब, भूख गायब, कृशकाय, पीला बदन,
दोनों ही हैं प्रेम-रोगी, चाहे विरह चाहे मिलन |
ख्याल उनका ही रहता, विरह-मिलन हर हाल में,
अन्तर आ ही जाता है, दोनों ही की चाल में |
विरह-मिलन दोनों ही, जकड़े हैं प्रेमजाल में,
एक सा ही भोगना, होता है दोनों हाल में |
सहन करना ही है नियति, यदि तेरा प्रेम सच्चा,
अन्यथा वह एक दिखावा, एक सौदा, समझौता |
बात सबकी, हाल सबके, शब्द मेरे,
जीवन में विरह-मिलन, सभी का आनन्द ले ले |


प्रेम की विजय
जब,
तुम न थी,
तो थे-
बैचेनियों के अँधेरे,
बिछोह का रुदन,
क्रंदन करती आहें,
इन्तजार करता वक्त,
अपलक, ठिठकी आँखें,
नींद की हड़ताल,
करवटों का साम्राज्य,
और तुमसे मिलने के ख्वाब |
और, अब,
जब,
तुम लौट आई हो,
तो, तुम्हारे आने से,
बैचेनियों के अँधेरे,
न जाने कहाँ गुम हो गए,
करवटें सोने लगी,
आँसुओं ने स्वभाव बदला,
गम से अब खुशी में,
ख्वाब सी लगती थी जो तुम,
अब असलियत हो गई |
विरह-मिलम से दो पहलुओं की जंग में,
प्रेम की जय हो गई |  


मिलन
जब,
तुम मिली,
तो-
नयन ठहरे,
थम गई साँसें,
रुक गई धड़कन,
और,
समय भी,
अपनी,
कब्र के ताबूत में,
इन्तजार करने लगा |


कायाकल्प  
मैं ताड़ की तरह खड़ा था अकेला  तनहा,
लम्बा, सूखा, सपाट, नंगा सा बस तना |
तुमने आ लचीली लता सा मुझको लपेटा,
अपनी प्यार की ओढनी से मुझको ढका |
फिर रंगबिरंगे फूल खिले, हर तरफ महक छाई,
पूरी बगिया में जिससे एक रोनक आई |
मैंने तो बस तुम्हें, थोड़ा सा सहारा भर दिया था,
तुमने तो मेरा कायाकल्प ही कर दिया |
और मेरा पूरा जीवन ही, खुशियों से भर दिया,
धन्यवाद रोशन बाटी का, कैसे कर पाएगा यह दीया |


सच्चा प्यार
सूर्य सी ऊष्मा, पानी सी ठण्डक,
फूलों सी खुशबू, हवा चंचल,
यदि महसूस करो तुम |
किसी का साथ, किसी की मुलाकात,
किसी की धड़कन, किसी का आभास,
यदि मससूस करो तुम |
दूर हो या पास, सच हो या ख्वाब,
किसी की याद, बस एक अहसास,
यदि महसूस करो तुम |
रात में तन्हाई, दिन में इन्तजार,
मिलने से जिसके, एक सच्चा करार,
यदि महसूस करो तुम |
तो यही वह प्यार,
जिसकी थी तुम्हें तलाश,
इसे न खोना कभी भी तुम |


प्यार 
वस्तु नहीं होता है प्यार, न मालिकी न अधिकार,
न डरा न दौलत से, यह खजाना पा सकते |
प्रेम नाम लुटाने का, बस अपने को मिटाने का,
जो बदले में कुछ न माँगे, बस निस्वार्थ देना जाने |
चाहे विरह, चाहे मिलन, रहे ह्रदय में जो हरदम,
न व्याख्या न विश्लेषण, वहीं प्यार का सच्चा चमन |


विवाह एक यज्ञ
विवाह,
एक यज्ञ |
जिसमें दुल्हन जैसे लकड़ी,
दूल्हा होता जैसे घृत |
दोनों जलते साथ-साथ बन गृहस्थ |
जब पड़े त्याग की समिधा इसमें,
व प्यार के मन्त्र हों उच्चार |
तब चहुँ दिशा उजियारा होता,
खुशबू से भर जाता घर |
तभी सफल होता यह यज्ञ |
वरना कलह की ज्वाला जलती,
करते हुए सदा तड़-तड़ |
जिसका अहम्, स्वार्थ का धुआँ,
देता घुटन व नफरत बस |