Tuesday, April 26, 2011

संस्कारित - कल्पतरु


       संस्कारित-पौधा
बच्चा होता, जैसे छोटा कोमल पौधा |
बढ़ता अपनी ही मस्ती में, अपनी ही वह धुन में होता |
लेकिन जग को नहीं पसंद, उसकी मस्ती उसकी धुन |
उसे उसकी जग-जननी से उखाड़,
रोपा सामाजिक गमले में,
अपने-अपने मज़हब की मिट्टी डाल |
फिर जैसे-जैसे बड़ा हुआ,
शुरू हुआ उसको देना एक विशेष आकार |

कुछ अनचाही डालों को काटा,
कुछ मनचाही को बाँध दिया |
जिसे चाह जैसे मोड़ दिया,
जो थी पसंद उन्हें छोड़ दिया |
जिसे बढ़ना दिव्य ऊँचाई था,
उसे हमने स्वार्थवश रोक दिया |

उसकी जड़ों को भी हमनें,
काटा-छांटा बढ़ने न दिया |
जो बढ़ना चाहती थी अपने, चेतन की गहरे में,
उसे सुन्दर, आकर्षक, चपटे गमले की उथली मिट्टी में,
कुछ बाहर दिखलाने को, कुछ अन्दर जिन्दा रखने को,
ऐसे ही बस छोड़ दिया |

उसमें जो भी छोटे-छोटे, फल स्वार्थ के शोभित होते,
नहीं किसी भी काम के होते |
उसमें वे परमार्थ के फल, जो सभी को तृप्ति देते,
नहीं कभी भी फलित हैं होते |

ऐसे हमने वह पौधा, जो ऊपर बढ़,
भव्य, दिव्य हो सकता था |
ऐसे हमने वह पौधा, जो अन्दर बढ़ गहराई में,
अपने चेतन से जुड़ सकता था|
ऐसे हमने वह पौधा, जिसके फल,
इस जग में बहुतों को तृप्ति दे सकते थे |
उसे हमने अपने स्वार्थ की खातिर,
बना दिया एक ‘बोनसाई’ बस बौना सा |
फिर उसे औरों को दिखाने,
बस अपनी ही तारीफ़ पाने,
‘ड्राइंगरूम’ में सजा दिया |