Saturday, January 29, 2011

मिर्ची...व सोच अलग-सच अलग व आगे की कविताएँ


      मिर्ची
मिर्ची-मिर्ची-मिर्ची,
अलग-अलग किस्म की ये लड़कियों सी,
तेज-तर्राट मिर्ची |
हरी-झंडी दिखाती ये हरी-हरी मिर्ची,
जोशीली, जवान, रसीली व तिरछी,
जो सबको लुभाती, लेती सभी की फिरकी |
मिर्ची-मिर्ची-मिर्ची |
छोटी मगर खोटी बड़ी तेज लोंगा मिर्ची,
जो छू ले ओठों को तो बजे मुँह से सीटी,
अच्छे-अच्छों को ये पानी पिला दे,
रखे याद इसे वो अपनी पूरी जिन्दगी |
मिर्ची - - - -
छोटी मगर मोटी ये लोंगा मिर्ची,
ना तो यह तिरछी ना ही यह तीखी,
यह तो बस नाम की ही, पिंग-पांग मिर्ची |
मिर्ची - - - -
काले-धन सी प्यारी ये काली-काली मिर्ची,
पैसेवालों की तुम ही हो आँखों की पुतली,
किसी को भी ‘फ्लोर’ पर तुम ‘डिस्को’ करा दो,
ऐसी थिरकन है तुममें ओ ‘ब्लैक-ब्युटी’|
मिर्ची - - - -
लाल-झंडी दिखाती ये लाल-लाल मिर्ची,
जो सूखी, झुर्राई फिर भी बहुत चरकी,
जो भी उसे छेड़े वो रोवे करे ‘पी-टी’,
मिर्ची - - - -    
सोच अलग –सच अलग
एक आदमी,
आँख बन्द कर,
एक पेड़ के नीचे,
शान्ति से बैठा था |
एक आलसी ने उसे सोता हुआ,
एक भक्त ने उसे उपासक,
और एक ज्ञानी ने उसे,
ध्यान-मग्न बतलाया |
वस्तु-स्थिति एक ही,
मगर स्वभावानुसार ,
सभी की सोच अलग-अलग |
जबकि,
कुछ और ही होता है सच |
वास्तव में वह,
इनमें से कुछ नहीं था,
वह तो एक अन्धा था |

माटी का दीया
मैं तो बस एक माटी का दीया,
बस जलते ही रहने को मैंने जनम लिया |
न जाति, न सम्प्रदाय, न ही मेरा कोई वर्ण,
रोशन सबको ही करना, बस इकलौता मेरा धर्म |
मेरा तेल व जलती बाती, रोज-रोज ही घटती जाती |
फिर भी जग को मरते दम तक, करता रोशन |
चाहे मेरे तल रहा हो, हरदम ही तम |
मैं सूर्य नहीं फिर भी मुझसे, जो बन पड़ा वह किया |
एक कर्मयोगी, कर्तव्यनिष्ठ बन, जीवन अपना जीया |
मैं तो बस एक माटी का दीया |

      मुक्तक
मेरी सांसों ने उनकी सांसों से कुछ कहा,
उनकी सांसों ने मेरी सांसों से कुछ कहा,
फिर सांसों से सांसे टकराई,
और गरम हो गई बीच की हवा,
जिसमें सब कुछ पिघल गया |
नाच-गाना, हंगामा, डिस्को, पब,
गम भुलाने के लिए एक नशा बस,
ऐसे ही जो हो रही है, पूजा-पाठ, कथा-भागवत,
वह भी एक बेहोशी जो सुलाती मदहोश कर,
पर जो दिखाता सत्य-राह, एक प्रकाश-दीप बन कर,
वह तो सत्-गुरू ही होता, जो जगाता झिंझोड कर |

      नेता
लहरों से सतही नेता,
करते हरदम शोर-तमाशा |
सागर से संत-ज्ञानी,
रहते हैं मौन सदा |
क्योंकि उन्हें है यह पता, कि-
या तो ये लहरें,
कभी तूफ़ान, कभी सुनामी बन,
बस बर्बादी लाएँगी |
या,
किनारों से टकरा,
खुद ही मिट जाएँगी |
बाकी कभी भी किसी के,
कुछ भी काम न आएँगी |  

   सच्चा धर्म
मन्दिर, मस्जिद, पूजा-पाठ या नमाज, सब मुखौटे,
पंडित, मुल्ला चला रहे, असली बता ये सिक्के खोटे,
सुविधाजनक जिसे जान हम, बिल्ली सी कर आँख बन्द, बहुत खुश होते,
जीवन योंही व्यर्थ कर रहे, कभी भेड़ तो कभी बन तोते,
मृगमरीचिका से जिसे ढूंढते फिर रहे, कभी भागते, कभी दौड़ते हम,
वह तो हमारे ही अन्दर बसा सच, जिसे खोजना ही है बस सच्चा धर्म |

    मिलनसार बूंद
अथाह, गहन सागर, होता है निरहंकार,
सभ्य, नम्र बूंद होती है मिलनसार,
केवल मदमाती, अहंकारी लहरों में, आता है उछाल,
इसीलिए वे किनारों से टकरा, मिट जाती हैं,
लेकिन मिलनसार बूंद सागर में मिल,
सागर ही बन जाती है |

    गुस्सा
देखो वह  आ रहा है,
चले आ रहा है,
तूफ़ान की गति से, अन्दर घुसे चले आ रहा है,
मेरे मजबूत किले के, बहादुर प्रहरी भी,
उसे नहीं रोक पाए,
और वह बड़े जोर-शोर से अन्दर आ ही गया,
मैं बेबस, असहाय सा कुछ भी न कर सका,
हाय! मैं कितना पराधीन था,
वह कोई और नहीं,
मेरा ही गुस्सा था |
       

Wednesday, January 26, 2011

बस - - - दो पंक्तियाँ - - - - -


बस---दो पंक्तियाँ -----

1
मन का भोजन कामना , मन – मन खा न अघाय |
अमन चैन तब ही मिले, जो मन अमन हो जाय |
2
जीवन अर्थ न अर्थ बस,जीवन- भाव न भाव |
जीवन जीया अभाव में,जो जीवन न भाव |
3
न दी न दी कहते सभी ,पर दानी नदी न रोय |
दीन तो सारा जगत,दीन नदी न होय |
4
लप –लप लप-लप करता हरदम,पल-पल बढ़ता काल |
लपक- लपक सब निगल रहा,आज नही तो काल |
5
करते हुए निस्वार्थ ही,स्व- स्वाभाविक कर्म |
अंत जहाँ सब पंथ का,उस शिखर पहुँचना धर्म |
6
दुर्जन जो स्वभावगत,कभी न सज्जन होय |
चाहे जितनो धोलो कोयलो,कभी न धोलो होय |
7
चाहे संगत साधु की , हरदम क्यों न होय |
मछली पानी में रहे , पर बास कभी न खोय |
8
साधु पारस है तभी , जब दूजो लोहो होय |
जो मति में पत्थर पड्या , सोनो कहाँ से होय |
9
घर-घर-घर-घर घट्टी पीसे , चलती जो हर काल |
घर-घर में घुस पीस रह्यो , पिसवैया सो यह काल |
10
दुख, प्रेम गहरो पेठे , सुख,वासना उथली होय |
गहरो पाये शान्ति , उथल्यो सदा ही  खोय |
11
जल में बैठी मैल सी , मन वृतियां होय |
थोड़ो भी यदि वह हिले , सब मटमैलो होय |
12
काम-वासना सींच कर , मन फल-फूल्यो जाय |
बिन सींचे जब यह फले , तो सच्चो सुख आय |
13
मनन जहाँ वहाँ मन है , मन न जहाँ अ-मन |
जब होवे यह मन अ-मन , वहीं सुख-चैन अमन |
14
जलने की यदि जलन जो , जल से शीतल होय |
मन में दबी घ्रणा-जलन , कभी न ठंडी होय |
15
जब तक था संसार-रस , तन-मन-धन थे सार |
अन्दर जब चेतन जगा , सब कुछ हुआ निस्सार |
16
तेरा दिया हुआ आटा , तेरा दिया हुआ पानी |
तू ही गूथवाता आटा , बनवाता रोटी स्वामी |
17
साधु करता साधना , साधक बन दिन-रात |
साध रहा वह साध्य को , अन्दर जिसका वास |
18
पंडित भय पैदा करे , ले पाप- पुण्य को नाम |
पर निडर-अभय करे , परमेश्वर- भगवान |
19
काम-क्रोध व लोभ से , भरा हुआ इन्सान |
निश्छल-प्रेम,करुणा जहाँ , वहीं बसे भगवान |
20
करे साधु जिसकी साधना , तपसी जिसका तप |
मुनि मनन जिसका करे , वह एकमेव है सच |
21
सेवक मन स्वामी बना , करा रहा सब कर्म |
वश में कर उसे जान के , यही जीवन का मर्म |
22
भटक रहा जो जीव बन , इस संसारी वन |
पार हुआ जो ढूँढ राह , उसने जीया सच्चा जीवन |
23
अस्तित्वहीन अहम्,तम,छाया,बन व्यक्तित्व चहुँ ओर है छाया |
होता अस्तित्व प्रकाशित तब ही,जब मिटे सभी अहम्,तम,छाया|      
24
निस्वार्थ सेवा ही है दान केवल |
बाकी सभी कुछ अहम् स्वार्थ के वश |
25
हर मनका एक कामना , मन का धागा डाल |
मालामाल होने की , फेर रहा है माल |
26
जब करना सब कुछ बन्द हो , होता होना बस |
स्व-स्वरूप को जानना , धर्म है केवल बस |
27
तू मनकों में डोर सा , अंतर्यामी सबमें छुपा |
जिसने खुद को जान लिया , उसने ही जाना खुदा |
28
जब तक शिव होता है जीवन , वरना शव होता है यह तन |
जिसका जान शिव छुटा अहम् , वही शिवम् , वही शिवम् |
29
अपनी जड़े दूसरों में , ढूँढना कहलाती माया |
जिसने उन्हें स्वयं में ढूंढा , उसने ही अनंत पाया |
30
बाहर की सब खोज , व्यर्थ कर्म |
अन्दर स्वयं की खोज , होता है सही धर्म |
31
जो तुझको बाहर ढूंढा , तो सबमें ही तुझको पाया |
जो स्वयं में तुझको खोजा , तो खुद को ही खोया पाया |
32
जो पोषित करे हमारे अहंकार , वे कहलाते हैं संस्कार |
जो सोच के करे वह व्यापर ,जो स्वतः ही हो वही सच्चा प्यार|
 33
जो सांसारिक दलदल से , कमलपत सा बाहर निकलता |
वहीं ब्रह्म की पूर्णता व निर्वाण की शून्यता का कमल खिलता |
34
पा सकते थे जिससे सब कुछ , उस कल्पतरु से जीवन को |
कर संस्कारित बना दिया , एक बोनसाई सा हमने उसको |
35
जैसे होते आपके संस्कार,वैसे आपके आचार,विचार व व्यवहार |
इसमें आपका कुछ भी नहीं , वे तो सब होते जैसे उधार |
36
वह गरीब है जिसके दिल में , चाह और की रहे बनी |
जिसे और की चाह नहीं , वह संतोषी सच्चा धनी |
37
जहाँ-जहाँ मैं-मैं की तूती,वहाँ-वहाँ तू कभी न होता |
जहाँ-जहाँ भी मैं मरता है,वहीं-वहीं तू पैदा होता |
38
जो शासित वे पराधीन , हरदम डर-डर के जीते |
जो अनुशासित वे स्वाधीन , सदा समरस में ही जीते |
39
चित्त खजाना जिसमें भरा , कई जन्मों का  धन |
 भोग रहा जिसे दिन-रात , बन राजा यह मन |
40
मनन जहाँ वहाँ मन है , मन न जहाँ अ-मन |
जब होवे यह मन अ-मन , वहीं सुख-चैन-अमन |
41
मन जल बैठी वृतियाँ , जो निकल न बाहर होय |
मटमैलो सब जल करे , जब भी हलचल होय |
42
साधु करता साधना , साधक बन दिन-रात |
साध रहा उस साध्य को , अन्दर जिसका वास |
43
जिसने अपने चित्त से , त्याग दिया हो जग |
वही है सच्चा सन्यासी , बाकी ढोंगी- ठग |
44
अस्तित्व अन्दर का , तो व्यक्तित्व बाहरिय जीवन |
दोनों जब होते हैं सम , तभी पूर्ण होता है जीवन |
45
अन्दर जो बैठा है चेतन , अहम् है केवल उसकी छाया |
छाया में जो नहीं उलझा , उसने ही बस चेतन पाया |
46
यह जग तो है जैसे सपने , लगते जो सच में ही अपने |
आँख खुली जब तो यह जाना , वे सब झूठे जो थे अपने |
47
जिसने तप से जान अनंत को , किये संताप,द्वन्द सब अंत |
वह संतोषी सत पुरुष , होता सच्चा संत |
48
हम प्रेम-स्वरुप हैं , प्रेम ही है केवल अपना |
दे सकते वह प्रेम ही हम , बाकी सब तो मृगतृष्णा |
49
जिनका सत्य ही हो आधार , वे ही सच में संस्कार |      
बाकी सभी झूठे चोंचले , अहम् ,दिखावा, निस्सार |
50
जो भोला ,निष्काम ,मदरहित , निर्मोही, निष्कपट |
व कभी नहीं होता प्रभु से विभक्त , वही भक्त |
51
हरपल , हरक्षण ,नित्य ही , परिवर्तित होता यह जगत |
इसीलिये वह माया, भ्रम , अनित्य व है असत् |
52
जिसने इस जीवन में ही , जान लिया हो आत्म- तत्व |
उसने जीते जी पाली मुक्ति , उसने ही पाया ब्रह्मत्व |
53
जो बीत गया वह भी कल था , जो आयेगा वह भी कल है |
दोनों कल का संगम यह पल , जीवन- सरिता की कलकल है |
54
जब सब होते हैं साथ-साथ , तो दीवाली होती है |
वरना बस हम होते हैं , और चार-दीवारी होती है |
55
सुख-दुख सभी द्वंदों में, जो रहता सदा सम |
सच्चा सन्यासी कहलाता वही जन |
56
जो इस जग सजग हो जीता |
उसने ही सच में जग जीता |
57
भय होता जैसे पिंजरा इक कारागृह |
जकड़ा है जिसमें मानव जन्म-जन्मांतर |
58
हर मानव में छुपा हुआ , इक कर्म-योगी,ज्ञानी किशन |
एक हाथ में बांसुरी , एक हाथ में चक्र-सुदर्शन |
59
ब्रह्म के पथ जो चले वह ब्रह्मचारी |
फिर अकेला ही चले चाहे साथ नारी |
60
सत का जहाँ संग मिले , वहीं असली सत्संग |
कथा-भागवत मनोरंजक , केवल पुष्पित संग |   
61
सत्-गुरु की लौ जल रही , उसका मिले जो संग |
बुझी हुई बाती जले , वही असली सत्संग |
62
धर्म होता स्वयं को जानने की साधना |
जो सफल होता ,वही पाता परमात्मा |
  63           
भरने का भ्रम देता है धन , जो दिखता है बाहर |
भर सकता जो वह तो बैठा , छुपा हुआ अपने ही अन्दर |
64
मिला भाग्य से जो हमें , वरदान स्वरुप अनुदान |
हम केवल उसके न्यासी , सच्चा मालिक वह भगवान |
65
ट्रक ,ट्रेक्टर, कार, बस , अलग-अलग हैं नाम |
ईधन सब में एक है , सबका एक ही काम |
66
कल-कल करते मूढ़ सब , कल के रुके न काल |
प्रभु-काज तू आज कर , छोड़ मोह-जंजाल |
67
चकोर सो जहाँ प्रेम हो , मकड़ी सो विश्वास |
ईश मिलेगा बस उसे ,  जाकी हर स्वांस उको वास |
68
कस्तूरी के मृग सा , तुझे ढूंढा हर स्थान |
मंदिर ,मस्जिद में नहीं ,मिला अन्दर उसका धाम |
69
ज्यों इत्र का स्पर्श से , कपडो महक्यो जाय |
संत का सत्संग से , जीवन सफल हो जाय |
70
व्यास-पीठ पर बैठ कर , जो माया में ध्यान |
शेर-खाल में गधो है , कहाँ से देगो ज्ञान |
71
द्वारकेशऐसे लोग से , सदा रहो सावधान |
चिकनो,चुपड्यो मुखोटो , बर्बादी तू जान |
72
दिखावा के वास्ते , करे जोड़-तोड़ अनंत |
बगुलो कितनो भगत दिखे , पर मन में भर्यो प्रपंच |
73
अर्थ-व्यवस्था देश की , ट्राफिक सी तू जान |
चमकीली गाड़ी दिखे , पर गढ्ढे ,प्रदुषण ,जाम |
74
प्लास्टिक की थैली से नेता , बगुले से सफेद |
अपने मतलब के लिये , बंजर करें ये देश |
75
भोग लगा ,श्रृंगार कर , करे बहुत उत्सव |
बहुरुपिया सब कुछ करे , पर मिले न कभी केशव |
76
पानी को स्वभाव यह , जिमें राखो वैसो होय |
बर्तन, बर्तन सो दिखे ,खुलो समुन्दर होय |
77
भगवा, तिलक, भभूत से , मिलते नहीं भगवान |
सत्य-वचन ,वैराग्य-मन , परहित ही भगवान |
78
टिक-टिक करती घड़ी चले , रुके न रोके कोय |
जो भी करना अभी कर , काल रुके न कोय |
79
मन तो है इक आइना , चढ़ी प्रपंच की धूल |
सत्कर्मों से पोंछ कर , धूल करो सब दूर |
80


बस कर भी सुनी हैं ,मरघट की बस्तियाँ |
उजड रही जो रोज ही ,चहक रही वे बस्तियाँ |
81
जनम से रोज ही ,मर रहा शरीर यह |
जनम यदि बीजतो ,मरण उसका है फल |
82
जन्म से मृत्यु तक का ,मृत्युधर्मा यह सफ़र |
शरीर नित्य मर रहा ,जीवन अव्यक्त ,अव्यय ,अमर |   
83
हर पल, हर क्षण मर-मर कर ,घट रहा यह जीवन |
मरघट का डर फिर भी हर घट ,सता रहा हर पल जीवन |
84
जन्म से मृत्यु तक का ,वृक्ष सा जीवन- सफ़र |
जन्म बीज ,बढ़ जो देता ,मृत्युरुपी कर्म-फल |
८५
मन के घोड़े बेलगाम ,स्वछन्द ही चहुँ ओर दौड़ते |
जो लगा लगाम इन्हें वश में करते ,जीवन रहस्य वे ही खोलते |
८६
अब तक जो सतही था ,महज एक आकर्षण |
जैसे-जैसे उम्र बड़ी ,गहराया प्यार का रंग |
८७
प्यार किसी खास उम्र का गुलाम नहीं होता |
ये वो नगमा है जो किसी साज का मोहताज नहीं होता |
८८
भरा हुआ है कूड़ा-कड़कट ,मेरे मन-आँगन में |
मैं ढूंढ रहा सतगुरु-बुहारी ,जो दूर करे इसे पलभर में |
८९
मूर्ति-पूजा को तब ही सफल समझो |
जब पत्थर में भी दिखने लगे भगवान हमको |


९०

तुम्हें देख मन मुदित हुआ, और हो गई आँखें बन्द |

कैसा प्यारा वह अद्भुत क्षण |

९१

सोने के स्तूप में, सन्यासियों का जमघट |

कर रहा है तप, यह दुनिया बड़ी गजब |

९२

सुख परछाई सा आगे-आगे, यदि हम उसके पीछे दौडें |

हम आगे वह पीछे-पीछे, यदि हम उससे मुँह मोड़ें |

९३

घृणा की आग की इक चिनगारी, कई घर जला गई |

प्यार की बस इक बूँद, कईयों की प्यास बुझा गई |

९४

जब टूट जाता है, मेरे अपने होने का भरम |

तभी पैदा होता है, तू और तेरा करम |

९५

जब शून्य हो जाता है, मैं व मेरे का अहम् |

तभी जान पाता है कोई, तेरा मरम |

९६

दूसरों को जानने में लगे हैं हम सभी |

यह और बात है कि हमें खुद का पता नहीं |

९७

भूत-भविष्य में जीना ही कहलाता भय |

जो आज अभी में जीता, वही है निर्भय |

९८

जिन्दगी उन्मुक्त हँसने का नाम है |

तुम्हें हँसना ही न आया तो मैं क्या करूँ |

९९

आज परिजन रहते घर में, जैसे पर-जन |

क्योंकि सबके अन्दर रहता, अपना-अपना अहम् |

१००

जो सदा अव्यक्त ही रहता, वह सच ही है ब्रह्म |

बाकी सभी जो दीखता, वह माया एक भ्रम |

१०१

रिश्तों कि ऊँची दुकान के, सब पकवान फीके हैं |

ऊपर से जो रसीले दीखते, अन्दर से सूखे हैं |

१०२

धन-दौलत की चौंधियाहट में, रिश्ते गुम हो गए |

प्यार के सब उजाले, अँधेरे हो गए |

१०३

शून्य हो जाता है, जब सारा संसार |

तभी जान सकता कोई, पूर्ण का सार |

१०४

दिमाग से बने सम्बन्ध, बस मुखौटे होते हैं |

जो बिना सोचे-समझे दिल से बनते, वे ही ताजमहल होते हैं |

१०५

ऊपर से ढोलक से संगीतमयी, मगर अन्दर से खोखले |

जो कलदार से सदा ही खनके, वे प्यार के रिश्ते ही असली खरे|

१०६

दिमाग से बने सम्बन्ध तो, बनावटी, बहुरूपिये होते हैं |

मगर दिल से बने प्यार के रिश्ते तो, खरे सिक्के होते हैं |

१०७

खुद को खोया तो ये जाना, ऐ !खुदा |

सिर्फ़ बन्दगी, आशिकी नहीं होती |

१०८

पैसों की खनखन का स्वर, बस शोर-तमाशा होता है |

जो दिल के साज से निकले, वही बस प्यार होता है |

१०९

मन में विचारों का तूफ़ान उठा रहता है |

सुना है तू उसके पार छुपा होता है |  

११०

संसार दरिया, जीवन इक कश्ती |

जो मन माझी, तो डूबेगी कश्ती |

१११

मन---विचार---द्वन्द---उलझन---बैचेनी---दुःख |

अ-मन---निर्विचार---निर्द्वंद---सरल---प्रसन्न---सुख |

११२

जो सत्य से कराते साक्षात्कार, वे सुसंस्कार |

बाकी सब दिखावटी, बनावटी, एकदम बेकार |

११३

जब तक साँस चले यह जीवन,वरना मृत कहलाता यह तन |

पर दो साँसों के बीच जो मृत पल, वही केवल अमृत जीवन |

११४

प्यार में हद हुआ नहीं करती,

जहाँ हद होती है वहाँ प्यार नहीं होता |

११५

मुद्दत के बाद उनको जो देखा गली में फिर से,

दिल के सभी घाव हरे हो गए |

११६

मेरी हार में ही मेरे जीत की शुरुवात है,

मेरी हार ही तुझ तक पहुँचने का मार्ग है |

११७

तेरे थिरकते लबों ने कह दिया सब कुछ,

या खुदा [संगदिल] हम ही नासमझ निकले |

११८

उनके लबों में कई समुन्दर भरे पड़े,

हम किनारे ही बैठे रहे डूबने के डर से |

[हमें पीना ही न आया तो खुदा क्या करे ]

११९

तेरे लबों पे थोड़ी सी मुस्कान क्या थिरकी,

बे मौसम ही हर तरफ बहार छा गई |

१२०

बिन पीये ही देख जिसे बहक उठे हम,

तेरे लबों में न जाने कितना नशा भरा हुआ |

१२१

वे प्यार के लब्ज भी हैं मेरी नफरत के हकदार,

जो तेरे लबों को चूम मुझ तक पहुँचते हैं |

१२२

गुलाबी तेरे लब, गुलाबी मेरी रंगत,

आओ हम प्यार की होली खेलें |

१२३

थिरकते हुए लब कह जाते सारी दास्ताँ,

जब लब्ज नहीं कर पाते भावों को बयाँ |

१२४

  

    



Saturday, January 15, 2011

मधुमयी गीता


        मधुमयी गीता
गीता तो सुन्दर अद्भुत है, एक मगर बस है प्याला |
जिसके अन्दर भरी हुई है, जीवन की अमृत-हाला |
जहाँ कृष्ण सा साखी हो, व अर्जुन सा पीने-वाला |
वहीं मिलेगी दीवानों को, सच्ची पावन मधुशाला |

             अध्याय एक
               1
कौरव पाण्डव की सेनाएं, तैयार खड़ी टकराने प्याला |
उछल रही छलकने जिससे, भरी हुई रक्तिम-हाला |
अन्धे राजा धृष्टराष्ट्र ने, दिव्यदृष्टि संजय से पूछा –
क्या हो रहा उस कुरुक्षेत्र, जो धर्मक्षेत्र है मधुशाला |
                                           2
संजय उवाच-
वे उकसा रहे शंखनाद कर, अपना-अपना सेन्य-प्याला |
जो जीतेगा उसे मिलेगी, साम्राज्य भरी मादक हाला |
भीष्म-पितामह कौरव के, व- कृष्ण बने पाण्डव के साखी |
पीने को मतवाले हो सब, खड़े हुए हैं मधुशाला |
                                           3
अर्जुन उवाच-
कौन-कौन से दीवानों का, मुझे तोड़ना है प्याला |
कौन-कौन पीनेवालों की, मुझे ढोलना है हाला |
मेरे साखी मुझे दिखाओ, ले जा दोनों सेना-मध्य |
जिनकी पीना जीवन-मदिरा, इस कुरुक्षेत्र की मधुशाला |
                                            4
जब अपनी ही मिट्टी से उसने, देखे कई-कई प्याले |
जब अपने ही से उसने देखे, कई-कई पीनेवाले |
तो डर मोहित हो बोला वह, मैं कैसे पीऊँ इनकी मदिरा |
जिनके साथ ही पीने जग की, मुझे चाहिए मधुशाला |
                                               5
गला सूखता, तन जलता जब, इनमें देखूँ मेरी हाला |
फिर उदास हो बैठ गया वह, छोड़ दिया गाण्डीव सा प्याला |
मर जाऊँ पर नहीं पिऊँगा, कुछ भी हो जाए साखी |
ये ना जानें हम तो जानें, धर्म की सच्ची मधुशाला |

              अध्याय दो
                                 6
कृष्ण उवाच-
हे अर्जुन क्यों पकड़ रहा तू, तुच्छ, नपुंसक, दुर्बल प्याला |
उसमें क्यों भर-भर कर पीता, तर्क नीति की झूंठी हाला |
तुम जैसे पीनेवाले को यह, शोभा नहीं देता है |
तू श्रेष्ठ-पुरुष की पी मदिरा, इस धर्मक्षेत्र की मधुशाला |
                                            7
अर्जुन उवाच- 
हे माधव! मैं तो असमंजस, बस मिट्टी का हूँ प्याला |
क्या पीना, कैसे पीना, नहीं जानूँ मैं भोलाभाला |
मेरे तो तुम ही साखी हो, तुम्हें समर्पित हूँ पूरा |
मुझे बताओ वह पथ जिस पर, चलकर पहुँचू मधुशाला |
                                            8
मैं नहीं जानता क्या होता है, धर्म का सच्चा पावन प्याला |
मैं नहीं जानता क्या होती है, जीवन की अमृत-हाला |
उचित लगे जो मुझे पिलाओ, बन कर तुम मेरे साखी |
पर युद्ध की मदिरा ना पिऊँगा, इस धर्मक्षेत्र की मधुशाला |
                                             9
कृष्ण उवाच-
जो कल-कल छल-छल करती दिखती, भरा हुआ जिससे हर प्याला |
वह अजर, अमर, नित्य, अविनाशी, कहलाती जीवन-हाला |
जो अव्यक्त, अवध्य, सत्य, अविकारी, अचल बैठा अन्दर बन साखी |
जो इसे जानता वही जानता, सच्ची, पावन मधुशाला |
                                              10
प्याले टूटते फिर बन जाते, फिर-फिर भरती उसमें हाला |
पहिले मैं, तू, ये सब भी थे, भिन्न मगर था सब का प्याला |
आगे भी हम सब होंगे, पर- आकार अलग-अलग होगा |
मैं जानूँ पर भूल गया तू, क्या होती सच्ची मधुशाला |
                                               11                                           
जो भी आता इस मदिरालय, कहलाता पीनेवाला |
अनन्त इच्छाओं की पीता, वह मीठी-कड़वी हाला |
पी-पी कर भी जो अतृप्त, प्यासा ही लौट जाता |
वह एक नया प्याला ले फिर से, आता इस जग की मधुशाला |
                                              12
जब जीर्ण हो कोई टूटता, इस मदिरालय मिट्टी-प्याला |
तो नये पात्र में भर जाती है, जीवन की अमृत-हाला |
पर निराकार, अव्यय, अनश्वर, स्थिर जो अन्दर साखी |
जो उसे जानता वही जानता, सर्वत्र है मेरी ही मधुशाला |
                                                 13
वह न था पीनेवाला, जब तक न थमा था प्याला |
ना ही वह यहाँ होगा, जब पी लेगा अपनी हाला |
बस वह तो कुछ ही समय, दिखता है इस मयखाने |
जो साखी बन बस देखे सब, वो जाने सच्ची मधुशाला |
                                                  14
क्यों बीच सभी पीनेवालों के, डगमग होता तेरा प्याला |
क्यों डगमग-डगमग करती बन कर, दुर्बल, कायर तेरी हाला |
यह तुझको शोभा नहीं देता, तू उठ पी यह रण-मदिरा |
वरना बदनाम करेंगे तुझको, जो पीने आए इस मधुशाला |
                                                  15
तेरी बदनामी होगी यदि, पीया न तुझने यह प्याला |
जिसके अन्दर भरी हुई है, धर्मोचित युद्ध-हाला |
इसको पीनेवालों के लिए, जीना-मरना एक समान |
यदि जीते तो धरती की, मरे मिले स्वर्ग-मधुशाला |
                                                   16
चाहे सुख-दुख, जीत-हार की, मीठी या हो कड़वी हाला |
सम भाव रख कर्म की मदिरा, पीता जा बस बन एक प्याला |
न तो तू साखी ही बन, ना ही बन पीनेवाला |
छोड़ सभी स्वादों के बन्धन, पा जाएगा मधुशाला |
                                                    17
जिसकी सारी इच्छाएं, सिमट गई हों इक प्याला |
जिसकी सभी कामनाएं मिट, बन गई हों बस हाला |
जितना अर्थ नदी-नालों में, होता मिल जाने पर सागर |
उसका उतना ही प्यालों में, होता पाने पर मधुशाला |
                                          18
तेरा हक है बस पीने का, चाहे मिले कोई भी प्याला |
तू पीता जा बस पीता जा, तू तो है बस पीनेवाला |
जैसा तेरा पीना होगा, तू वैसा नशा ही पाएगा, पर –
यदि बस पी मेरी ही मदिरा, तो पाएगा सच्ची मधुशाला |
                                                 19
जिसने हो स्नेह-रहित, त्याग दिया द्वन्दों का प्याला |
जिसने छोड़ दिया हो पीना, काम-वासना की हाला |
जो आत्म-नशे में ही हरदम, मस्त रहा करता है |
वह स्थितिप्रज्ञ पीनेवाला ही, पता है मेरी मधुशाला |
                                               20
जो कछुए सा विषय-मदिरा से, हटा लेता इन्द्रिय-प्याला |
जो निवृत हुआ हो पीने से, मन की आसक्ति-हाला |
जो मुनि हरदम ही पीता हो, केवल मेरे ध्यान की मदिरा |
वह बिन डगमग पीनेवाला, पाता मेरी ही मधुशाला |
                                               21
जो हरदम सोचे कैसे पाऊं, अपनी इच्छाओं की हाला |
ना मिलने पर उस आसक्त की, भड़क उठे क्रोध की ज्वाला |
जिसके कारण उसकी स्मृति, व बुद्धि नष्ट हो जाती है |
वह विमूढ़ कैसे पावेगा, सच्चे सुख की मधुशाला |
                                               22
वह सोता जब सब जग जागे, पाने मृग-मय का प्याला |
जब जग सोता वह जागता, पीने सच्ची मधु, हाला |
जैसे विचलित किये बिना ही, नदियाँ समा रही सागर में |
वैसे ही बिन डगमग पीता, वह जिसने जानी मधुशाला |
                                                 23
उसमें क्या डालेगा कोई, जिसका पूर्ण भरा हो प्याला |
उसमें बस वो ही मिल सकता, जो घुल जाए उस हाला |
रत्नों के प्याले मिट्टी से, लगते हों जिसको हरदम |
वह स्थितिप्रज्ञ पीनेवाला ही, पाता शांतिमयी मधुशाला |
                                               24
जिसने बस पीने चुनी हो, केवल ज्ञान की ही हाला |
वह किसी को न तो पिलाता, ना ही बनता पीनेवाला |
वह तो बस दर्शक बन देखे, हरदम तन-मन-बुद्धि प्याला |
उसका मैं, मेरा वो साखी, एक हमारी मधुशाला |
                   अध्याय तीन
                                   25  
तू चाहे थाम प्रेम-मदिरा का, या थाम ज्ञान का प्याला |
पर बुझेगी प्यास तभी, जब पियेगा कर्म की हाला |
यदि छोड़ना चाहे तो भी, तू नहीं छोड़ पाएगा |
प्रकृति सा साखी जबरन ही, पिला ही देगा इस मधुशाला |
                                               26
बिना थामे कैसे जानेगा, क्या होता है मदिरा प्याला |
बिना पीये कैसे जानेगा, क्या होती कर्मों की हाला |
बिना पीये कोई भी इस जग, पल भर भी नहीं रह सकता |
तू जबरन ही उसके वश हो, बन जाएगा पीनेवाला |
                                                27
जो मूढ़ पुरुष हठपूर्वक, नहीं पकड़ते इन्द्रिय-प्याला |
लेकिन मन में हरदम पीते, विषयों की ही विष-हाला |
ऐसे पीनेवाले होते, दम्भी व मिथ्याचारी | पर-
अनासक्त हो कर्म की मदिरा, पीता जो पाता मधुशाला |
                                              28
मैंने कल्प के आदि में, जब रचा जग का प्याला |
और बनाए पीनेवाले, और बनाई मधु, मय, हाला |
पहले पिलाओ फिर खुद पियो, उन्नत होगा यह मदिरालय |
जिससे मिलेगी तृप्ति तुमको, पा जाओगे मधुशाला |
29
मदिरालय पीनेवालों से, मदिरा से पीनेवाला |
साकी पिला रहा सबको, विहित-कर्म की मधु, हाला |
मय अंगूर, अंगूर लता से, लता बीज अविनाशी से |
वह ‘अक्षर बीज ही असल नशा है, जिससे चहक रही मधुशाला |
30
न मुझे जरूरत पीने की, न मुझे अप्राप्त कोई प्याला |
फिर भी सदा सावधानी से, पीता कर्मों की हाला |
यदि ध्यान से मैं ना पीऊँ, डगमग सब हो जाएगा |
मैं जो पीता सब वो पीते, पाने को पावन मधुशाला |
31
रजोगुणी रज से जो बनता, वह होता कामी-प्याला |
जिसके उर में धधक रही, काम-वासना, क्रोध की ज्वाला |
उसमें चाहे जितनी भी तुम, भोगों की मदिरा डालो |
जितना डालो उतनी बढती, ऐसी वह प्यासी मधुशाला |
32
तन तो बस होता है जैसे, होता एक खाली प्याला |
जिसमें सब भर-भर कर पीते, अपने-अपने मन की हाला |
चेतन बस साखी बन देखे, तुम क्या पीते क्या न पीते |
जो जैसा पीता वैसी ही, पा जाता है मधुशाला |
33
यह शरीर तो होता है, केवल एक खाली प्याला |
मन-इन्द्रियाँ-बुद्धि की, जिसमें भरी हुई हाला |
जो आत्म-साखी से पीता हरदम, इसमें भर-भर पावन मदिरा |
वही है सच्चा पीनेवाला, उसे ही मिले सच्ची मधुशाला |

            अध्याय – चार
34               
जब-जब मधु-रस कम होता है, इस अवनी आँगन प्याला |
तब-तब मैं साखी बन आता, भर देने इसमें हाला |
नष्ट कर रहे जो मदिरालय, मैं फोड़ता उनके प्याले |
व सच्चे पीनेवालों को, सौंप देता मैं यह मधुशाला |
35
मैं प्याला, मैं ही साखी हूँ, मैं ही हूँ सच्ची हाला |
फिर भी बार-बार आता हूँ, बन कर एक पीनेवाला |
जैसे-जैसे मैं पीता हूँ, वैसे ही सब पीते हैं |
साथ-साथ पीने पिलाने, आता मैं इस जग-मधुशाला |
36
इस जग में मैंने बनाए, चार अलग-अलग प्याले |
चार तरह की ही मदिरा, व चार तरह के पीनेवाले |
सब कुछ मैं ही करता हूँ पर, फिर भी कुछ नहीं करता |
जो मुझसा निर्लिप्त हो पीता, वो पता सच्ची मधुशाला |
37
जो पीकर भी कुछ न पीता, ना पीकर भी पीनेवाला |
वो ही सच्चा आशिक है, उसी ने पी सच्ची हाला |
जो कोई बिन ईच्छा पीता, जिसकी शांत हो उर की ज्वाला |
उसे ‘पियक्कड़’ भी कहते हैं, सच्ची पावन मधुशाला |
38
हर आनेवाला पीता है, यहाँ अलग-अलग प्याला |
कोई यहाँ मदिरा पीता है, कोई पीता अमृत-हाला |
कोई नयनों से, कोई होठों से, हैं कई तरीके पीने के |
कैसे भी यदि तृप्ति मिले तो, पा जाइयेगा मधुशाला |
39
यदि पीया है अबतक तूने, बस हलाहल का प्याला |
और अंत में भी पी लेता, यदि ज्ञान की तू हाला |
तो शांत करेगी वह तेरे, अज्ञान की उर में जलती ज्वाला |
फिर बस तू दीवाना बन, पा जाएगा मधुशाला |
40
जिसने थामा हो अविवेक व, अश्रध्दा का वदरा प्याला |
जो हरदम ही पीता हो, संशय की मदिरा हाला |
ऐसा पीनेवाला हरदम, मूर्छित ही रहता है |
वह इहलोक ना परलोक की , न पावे सुख की मधुशाला |
           अध्याय – पाँच
41  
जो सब कुछ पीता पर जाने, वह तो नहीं पीनेवाला |
हरपल-हरक्षण जिसके अन्दर, बस थिरके मेरी ही हाला |
वह दीवाना हरदम ही, मदमस्त हुआ रहता है |
अन्दर-बाहर चहुँ दिशा बस, उसके चहके मधुशाला |
42
तू कर्तव्य समझ कर बस, पीता जा अपना प्याला |
पीता जा बस पीता जा, बिन चाह कर्मों की हाला |
अर्पण कर तू स्वयं को, हाथों में उस साखी के |
निर्लिप्त कमलपत सा बस पी, पा जाएगा मधुशाला |
43
बिन चाह ही जो पीता है, बनकर बस एक पीनेवाला |
तन-मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ, जिसके लिए हैं बस एक प्याला |
जिसे न चाह कोई मदिरा की, बंधे ना ऐसा पीनेवाला |
वह त्याग सभी फल पीने का, पा जाता है मधुशाला |
44
उसने तो बस तुम्हें दिया, सिर्फ़ एक खाली प्याला |
उसने तो बस तुम्हें दिया, मद, मदिरा, मधु, मय, हाला |
क्या पीना, कैसे पीना, क्यों पीना ये तुम जानो |
वह साखी बन देख रहा बस, तुझको पीते इस मधुशाला
45
जो देखता केवल मुझको, हरएक ही पीनेवाला |
जो हरदम बस पीता हो, केवल मेरी ही हाला |
जिसमें थिरक रहा हो केवल, तत्वज्ञान बन एक नशा |
ऐसा पीनेवाला हरदम, रहता मेरी ही मधुशाला |
46
जो पीनेवाला उद्विग्न न हो, मिलने पर अप्रिय प्याला |
जो पीनेवाला हर्षित न हो, मिलने पर प्रिय मदिरा हाला |
वह सम भाव से पीनेवाला, केवल मेरी ही मदिरा पी कर |
रहे मस्त सदा आनन्द नशे में, उसे ही मिले अक्षय मधुशाला |
47
सुख देनेवाला लगता है, मदिरा भरा हुआ यह प्याला |
लेकिन नशा उतरने पार, बनता वह दुख देनेवाला |
जो जान सभी सुख-दुख के फंदे, छोड़ यहीं देता पीना |
वह सदैव अमृत-मधु पीता, अपने उर सच्ची मधुशाला |
48
जिसने फोड़ दिया हो अपने, भरे हुए पापों का प्याला |
जिसके दूर हुए सब संशय, पीकर ज्ञान की अमृत-हाला |
जो सबको बनकर साकी, पिला रहा परमार्थ की मदिरा |
वही शून्य का मौन नशा, वही पूर्ण चहकती मधुशाला |
49
जो भी पीनेवाले पीते, हरदम केवल मेरी हाला |
जो भी पीनेवाले देखे, मुझमें ही हर एक प्याला |
जो सदैव मुझको ही साकी, और समझे पीनेवाला |
वही है मेरा सच्चा आशिक, उसे ही मिले सच्ची मधुशाला |

        अध्याय – छ:
50
वह योगी नहीं जो केवल छोड़े, बस क्रियाओं का प्याला |
वह नहीं सन्यासी जो बस छोड़े, केवल अग्नि की ज्वाला |
जो संकल्प त्याग, निरासक्त हो, पीता केवल कर्म की मदिरा |
वह योगी है, वही सन्यासी, उसे ही मिले सच्ची मधुशाला |
51
जिसने किया हो वश में अपने, तन-इन्द्रियों का प्याला |
जिसने किया हो वश में अपने, वेगित मन की प्रमथन हाला |
पर वह शांत व सम होकर, पीता सब द्वंदों में |
ऐसा स्वाधीन पीनेवाला ही, पाता सच्ची मधुशाला |
52
जो निर्लिप्त अकेले में ही, पीता मेरा कल्पित-प्याला |
जो बिन डगमग हो पीता हरदम, केवल मेरी ही हाला |
जैसे वायु-रहित जगह में, दीपक की लौ स्थिर रहती |
वैसे ही यह पीनेवाला, उपराम हुआ पाता मधुशाला |
53
जो मुझे ही देखता हो हरदम, हर एक भूतों का प्याला |
जो सब प्यालों का प्रतिबिम्ब, देखे केवल मेरी हाला |
जो समदृष्टि हो एकीभाव से, पीता हरदम मेरी मदिरा |
वह परमश्रेष्ट पीनेवाला, पाता मेरी ही मधुशाला |
54
माना मुश्किल होता पीना, जो लगती कड़वी हाला |
लेकिन अथक कोशिशों से तू, बन सकता है पीनेवाला |
ऐसे पीनेवालों की कभी, दुर्गति नहीं होती है |
वह पीनेवाला दीवाना, आखिर में पाता मधुशाला |

      अध्याय – सात
55
हजारों में कोई यत्न करे इक, पाने को मेरा प्याला |
उसमें भी कोई इक दीवाना, पीता है बस मेरी हाला |
ऐसा पीनेवाला जाने, बस सच में मेरा नशा |
केवल ऐसा दीवाना ही, पाता है मेरी मधुशाला |
56
पंच-तत्व से बना हुआ, यह जो दीखता मादक प्याला |
मन,बुद्धि व अहंकार की, जिसमें भरी हुई हाला |   
ये सभी पीने के साधन, जड़-प्रकृति कहलाते हैं |
लेकिन जो चैतन्य नशा है, वही है सच्ची मधुशाला |
57
उसमें गुंथा जग-मदिरालय, जैसे प्यालों की माला |
जिसमें भरी हुई है केवल, मेरी ही जीवन हाला |
मदिरा, प्याले, पीनेवाले, सबमें है मेरा ही नशा |
मैं उनमें पर, मुझमें वे नहीं, ऐसी मेरी मधुशाला |
58
मेरे ही कारण सारा जग, बना हुआ है इक प्याला |
मैं ही रमा बसा कण-कण में, बनकर के जीवन हाला |
मेरे ही माया-साखी से, मोहित है हर पीनेवाला |
लेकिन मेरे नाम का मधु, पीता जो पाता मधुशाला |
59
चार तरह के पीनेवाले, आते पीने मेरी हाला |
अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु, या जिसके पास हो ज्ञान का प्याला |
ये सब चारों ही होते हैं, सच्चे प्यारे पीनेवाले |
पर ज्ञानी तो हरदम पीता, आकर मेरी ही मधुशाला |
60
जो अन्य सभी पीने की करते, अलग-अलग इच्छा-हाला |
उसका उस-उस देव-साखी से, भरवाता मैं ही प्याला |
ऐसे पीनेवालों का यह, नशा उतरता है एक दिन |
पर मेरी ही जो मदिरा पीता, पा जाता सच्ची मधुशाला |
61
यदि बुद्धू जो पीनेवाला, समझे मुझको मानव-प्याला |
जिसमें भरी हुई होती है, इन्द्रिय-मन की चंचल हाला |
वह नहीं जानता मैं अविनाशी, अन्दर छुपा अव्यक्त नशा |
ऐसा पीनेवाला कैसे, पाएगा मेरी मधुशाला |

              अध्याय – आठ 
62
सच्चा ‘कर्म’ जो यह जान ले, एक ही है मदिरा हर प्याला |
जो स्वाभाविक थिरके अन्दर, वह ‘आध्यात्म’ ही असली हाला |
जिसका नशा कभी ना उतरे, वह नशा ‘ब्रह्म’ मैं ही हूँ |
जो जाने मैं बसता रग-रग, वो जाने सच्ची मधुशाला |

63
जो आता-जाता इस मदिरालय, वह ‘अधिभूत’ पीनेवाला |
‘अधिदेव’ सा सबका होता, साखी एक पिलानेवाला |
पर मैं ‘अधियज्ञ’ ही वह नशा, जो हरदम सबमें रहता |
जो अंत समय भी यह जान ले, वह पाता सच्ची मधुशाला |
64
दिन-रात निरन्तर तू पी, मेरे नाम की कल्पित हाला |
अर्पण कर मुझको तेरा जो, मन-बुद्धि से भरा है प्याला |
फिर जो भी चाहे तू कर पर मैं, तुझे संभालूँगा साकी |
तुझे बार-बार मदिरा पीने ना, आना होगा जग-मधुशाला |
65
कृष्ण-मार्ग से हरदम रहते, आते-जाते पीनेवाले |
पर शुक्ल-मार्ग से गए हुए, फिर नहीं लौटते मदिरालय |
जान राह दोनों यदि कोई, छोड़े सभी काम-वासनाऐ |
वह निसंदेह ही पा जाता है, सच्ची पावन मधुशाला | 

            अध्याय – नो
66
मेरे ही कारण मिट्टी, जल, जिनसे बनता तन-प्याला |
अंगूर, लता मेरे ही कारण, जिनसे बनती जीवन-हाला |
देव-साकी सब पिला रहे, मेरे ही कारण मदिरा |
फिर भी मैं कुछ भी न करता, अलग ही है मेरी मधुशाला |
67
जैसे जल से बरफ, आकाश में वायु, मुझसे भरा हुआ जग सारा |
मेरे ही कारण स्थित है, जिसमें हरएक पीनेवाला |
पर सच में, मैं नहीं किसी में, ना ही कोई मुझमें है |
जो जैसा पीता वैसी ही, पा जाता है मधुशाला |
68
मेरे ही कारण मदिरालय, प्याला, हाला, पीनेवाला |
पर कामी विक्षिप्त असुर, पीते व्यर्थ ही मोहिनी हाला |
ये मूढ़, अज्ञानी समझे मुझको, साधारण पीनेवाला | पर-
मैं वह परम-नशा हूँ जिससे, झूम रही सारी मधुशाला |
69
जो मुझे जानते सत्य अविनाशी, कारण सब भूतों का प्याला |
वे भक्त, महात्मा, ज्ञानीजन, पीते हरदम मेरी हाला |
सबकी अलग भाव-मदिरा पर, नशा एक होता है |
क्योंकि मैं ही प्याला, मैं ही हाला, मैं ही हूँ पूरी मधुशाला |
70
जो हरदम सकाम कर्म का, थामें होते हैं प्याला |
जो वेद-साखी से चाहें हरदम, सोमरस की ही हाला |
वे पुण्य-नशा भोग स्वर्ग में, धरती पर फिर वापस आते |
पर पीते जो निष्काम हो मदिरा, पाते सच्ची मधुशाला |
71
मदिरालय देवों का पाते, जो पीते देवों का प्याला |
मदिरालय पितरों का पाते, जो पीते पितरों की हाला |
मिले भूत का मदिरालय यदि, भूत ही हो उनका साकी |
पर मेरा मधु कैसे भी कोई, पीये मिले मेरी मधुशाला |
72
जो प्रेम से मुझे पिलाता, पत्र,पुष्प,फल,जल की हाला |
उसको भी मैं पीता हूँ, बन कर एक पीनेवाला |
इसीलिए तू जो भी कर, बस मुझको ही अर्पण कर |
हो सभी कर्म-बन्धन से मुक्त, तू पा जाएगा मधुशाला |
73
मैं सम-भाव से स्थित हूँ, हर एक ही पीनेवाला |
पर बड़े प्रेम से पीता जो, हरदम मेरी ही हाला |
वह सदा नशे में मेरे ही, मदमस्त हुआ रहता है |
वह चाहे कोई भी हो, पाता मेरी ही मधुशाला |

       अध्याय – दस
74  
मेरी उत्पत्ति ना जाने, विक्रेता चाहे पीनेवाला |
मैं सबका ही आदि-बीज, चाहे अंगूर,लता,मदिरालय,हाला |
जो मुझे अविनाशी,अजन्मा जाने, बस इकलौता सबका साकी |
वह निष्पाप,ज्ञानी पीनेवाला, पाता मेरी ही मधुशाला |
75
मैं ही वह अंगूर हूँ जिसकी, पीते हैं सब ही हाला |
बना है मेरी ही माटी से, इस दृश्य जगत का सुन्दर प्याला |
अच्छी-बुरी भाव-मदिरा सब, मेरे ही कारण होती |
जो जाने यह तत्व-बीज वह, पा जाता है मधुशाला |
76
मेरे गुण प्रभाव से सज्जित, जो पाते संतुष्टि-प्याला |
जो मदमस्त झूमते हरदम, पीकर मेरी प्रेम की हाला |
मैं साकी बन भर देता हूँ, तत्व-ज्ञान की उनमें मदिरा |
जिसको पीकर उन्हें प्राप्त हो, मेरी ज्योतिर्मय मधुशाला |
77
मैं मिट्टी, मैं ही जल हूँ, मैं ही उससे बनता प्याला |
मैं ही बीज, अंगूर, लता, मैं ही उससे बनता हाला |
मैं ही साकी बन पिलाता, मैं ही बनता पीनेवाला |
मैं ही थिरकता इक नशा बन, मैं ही हूँ पूरी मधुशाला |
78
तू क्यों लालायित इतना, जानने को मेरी हाला |
मेरी एक बूंद से ही, झूम रहा यह जग सारा |
सत-रज-तम सभी का मादक, नशा भरा हुआ इसमें |
जिसने भी यह जान लिया वह, पहुँच गया मेरी मधुशाला |
 79
अर्जुन – उवाच –
हे माधव! तुम्हें जान ना पाया, कोई भी दानव-प्याला |
ना ही जान पाया कोई, तुम्हें सूरा पीनेवाला |
तुम पुरषोत्तम, महादेव, जगतपति सबके साकी |
तुम ही स्वयं, स्वयं से जानो, स्वयं की पावन मधुशाला |

           अध्याय – ग्यारह
80      
मुझमें देख अंगूर लताऐ, मुझमें देख हर पीनेवाला |
मुझमें देख सुर,असुर व मानव, मद,मदिरा,मधु,मय,हाला |
चन्द्र,सूर्य,नक्षत्र,सितारे, चमक रहे पी मेरी मदिरा |
मैं आदि-अन्त-मध्य पीने का, तू मुझमें देख पूरी मधुशाला |
81
अर्जुन – उवाच –
आप बीज अंगूर,लता के, आप ही से बनता हर प्याला |
सत-असत, गुण-निर्गुण व, आप ही काल व अमृत हाला |
आप व्याप्त विश्व के कण-कण, आप ही से हर पीनेवाला |
विश्वस्वरूप, अनन्तरूप, आप ही हो सच्ची मधुशाला |
82
ज्यों सागर की ओर दौड़ती, नदियों की वेगित धारा |
ज्यों पतंग मोहवश दौड़े, प्रज्वलित अग्नि की ज्वाला |
वैसे ही सब लोग उतरते, मदिरा से आप के मुख में |
तपित है यह जग देख आपकी, तेजमयी उग्र मधुशाला |
83
कृष्ण – उवाच –
मैं महा नशा बन महाकाल, आया लोकों के मदिरालय |
पिऊँगा उन सबकी मदिरा, दीखते यहाँ जो पीनेवाले |
तू निमित्त बन पीले बस, मेरी पी हुई इनकी मदिरा |
और यश,धन-धान्य का नशा, भोग तू इस जग की मधुशाला |
84
अर्जुन – उवाच –
देख उग्र विकराल रूप यह, भय से व्याकुल मन का प्याला |
मुझे पिलाओ विष्णुरूप बन, निर्भय प्रीति की मोहिनी हाला |
शंख,चक्र व गदा,पद्म हों, तेरे हाथों में साकी |
`हे विश्वरूप! तुम मुझे दिखाओ, सौम्य चतुर्भुज मधुशाला | 
85
कृष्ण – उवाच –
हे अर्जुन तू अब देख वह, चतुर्भुजी दुर्लभ प्याला|   
करें कामना देव भी जिसकी, पीने को हरदम हाला |
वेद,यज्ञ,दान,तप से ना, पा सकता यह कोई मदिरा |
अनन्य-भक्ति का नशा हो जिसमें, वही पाता यह मधुशाला |

              अध्याय – बारह
86
कृष्ण – उवाच –
जो हरदम मेरी ही मदिरा, पीते समझ प्यार का प्याला |
उस प्रेमी को मैं मानता, सबसे उत्तम पीनेवाला |
लेकिन जो हरदम पीता है, मेरी ही ज्ञान मदिरा |
वह समरस दीवाना एकदिन, पा जाता मेरी मधुशाला |
87
यदि असमर्थ तू पीने में, मेरे ध्यान का कल्पित प्याला |
तो मुझको पाने की कोशिश कर, पीकर मेरी ईच्छा हाला |
यदि यह भी मुश्किल लगता तो, मेरे ही निमित्त बस पी |
और त्याग पीने का नशा, पा जाएगा मधुशाला |
88
जो सुख-दुख सब द्वंदों का, सम रह कर पीता प्याला |
जो बिन स्वार्थ व अहंकार के, पीता हरदम मेरी हाला |
मुझे सदा ही अतिशय प्यारा, जो ऐसा पीनेवाला |
ऐसा दीवाना अमृत पी, पा जाता है मधुशाला |

              अध्याय – तेरह

‘क्षेत्र’ नाम से जाना जाता, यह शरीर जो एक प्याला |
जो इसे जानता वह ‘क्षेत्रज्ञ’, जीवात्मा, जीवनहाला |
परा-अपरा, प्रकृति-पुरुष, क्षर-अक्षर सब नाम इसी के |
जो तत्व से इसे जान ले, पा जाता मेरी मधुशाला |
90
कार्य-करण, इच्छा, देह, द्वन्द, द्वेष, चेतना, धृति की हाला |
ये सभी विकार भरे है जिसमें, कहलाता ‘क्षेत्र’ का प्याला |
जो साकी इनको जाने वह, जीवात्मा ‘क्षेत्रज्ञ’ कहलाता |
इन सबसे पर, परम-नशा जो, वही परमब्रह्म सच्ची मधुशाला |
91
मैं ही वह नशा जिससे, थिरक रहा है हर प्याला |
मैं ही दृष्टा एक साकी, मैं ही सम्मति की हाला |
मैं ही पिलाता हूँ सबको व, जीवरूप बन पीता हूँ |
मैं हर साकी का भी साकी, मैं ही हूँ सच्ची मधुशाला |
92
जो सब कर्मों को जाने, केवल प्रकृति भरा प्याला |
जो देखे मेरी सब भूतों में, मुझमें सब भूतों की हाला |
जो मुझे जाने निर्गुण, अविनाशी, अकर्ता न पीनेवाला|
वही जानता आत्म-नशा सच, वही पाता ब्रह्म-मधुशाला |

          अध्याय – चौदह
93
मेरी महत् ब्रह्म प्रकृति, सब भूतों का योनी प्याला |
मैं ही साकी बन भरता, उसमें चेतन जीवन-हाला |
जड़-चेतन के इस मिलन से, हर पीनेवाला बनता है |
मैं सत-रज-तम मदिरा से बंधता, देहरूपी इस मधुशाला |
94
जो निर्मल, प्रकाशित करता हरदम, वह सत्व का है प्याला |
जो और-और की रटन लगाता, वह रजोगुणी पीनेवाला |
जो प्रमाद व मोह में बाँधे, वह रजोगुणी मदिरा है |
जो द्रष्टा बन बस पीता सब, पा जाता वह मधुशाल |
 
           अध्याय – पन्द्रह
95
जिसने बैरागी बन छोड़ा, अहम्, मम, वासना प्याला |
और परमपद परमेश्वर की, जिसने पी ली हो हाला |
जो शरण सदा उस आदि-साकी के, जिससे फैला जग मदिरालय |
वह निर्द्वंद, नित्य, दृढ पीनेवाला, पाता अविनाशी मधुशाला |
96
जिसे नहीं मोहित करता, द्वन्द व आसक्ति प्याला |
जिसे प्रकाशित नहीं कर सके, सूर्य, चन्द्र व अग्नि-ज्वाला |
जिसे प्राप्त हो सच्चा आशिक, नहीं लौटता जग-मदिरालय |
वही है मेरा परम-धाम, वही है मेरी मधुशाला |

            अध्याय – सोलह
97
एक प्याले में भरी हुई, निष्काम,दान, करुणा हाला |
काम-क्रोध-लोभ मदिरा से, भरा हुआ दूजा प्याला |
पहला ‘दैविक’ दूजा ‘आसुरी’, पीनेवाला कहलाता |
जो आसुरी छोड़ पीये दैविक, वह पा जाता मधुशाला |
98
असुर-स्वभाव नहीं जानता, प्रवृति-निवृति प्याला |
वह मन्द-बुद्धि हरदम पीता, दम्भ,मान, मद, इच्छा हाला |
जो मृत्युपर्यंत चिंता-साकी से, पीता विषय-भोग की मदिरा |
वह पापी, क्रूर, नराधम पाता, बार-बार आसुरी मधुशाला |
99
जो कर्तव्य समझ कर पीता, उसका होता सात्विक प्याला |
जो चाहत की ही हरदम पीता, उसकी होती राजसी हाला |
मगर तामसी हरदम पीता, कल्पित, दम्भ, अहम् की मदिरा |
जैसा जिसका पीना होता, वैसी ही पाता मधुशाला |

              अध्याय – सत्रह
100
तीन नाम मेरी मदिरा के, जिससे व्याप्त यह सृष्टि प्याला |
‘ओम’ नाम से शुरु करता सब, मेरी मदिरा पीनेवाला |
‘तत्’ नाम से यह सारा जग, पीता मेरी ही हाला |
जो ‘सत्’ नाम की मेरी मदिरा, पीता पाता मधुशाला |

             अध्याय – अठारह
101   
पहले पीया हुआ नशा व, पीता अब जिस-जिस भी प्याला |
जिसके लिए पीता है तू, जैसे-जैसे यह हाला |
जो तन-मन-वाणी से पीता, उसके ये ही कारण हैं |
जो समझ यह मदहोश न हों, पा जाता है मधुशाला |
102
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, क्षुद्र सब, पीते अपनी-अपनी हाला |
लेकिन सबका ही होता है, केवल मिट्टी का प्याला |
जो सुख में, दुख में, हर हाल में, पीता अपनी ही मदिरा |
वह मदमस्त हो पा जाता, आनंदमयी सच्ची मधुशाला |
103
चाहे धरती, चाहे नभ का, चाहे देवों का प्याला |
पूरी सृष्टि भरी हुई है, केवल त्रिगुणी ही हाला |
स्वस्वभाव के गुण की मदिरा, लेकिन जो पीता हरदम |
वह अन्त में पा ही जाता, मेरी सच्ची मधुशाला |
104
जो तू अहमवश नहीं चाहता, पीना यह रण का प्याला |
तो भी स्वभाव वश पीना होगी, तुझको यह रक्तिम-हाला |
मैं साकी अपनी सुराही से, पिला रहा सबको मदिरा |
तू हरदम मेरी ही मदिरा पी, पा जाएगा मधुशाला |
105
तू त्याग सभी धर्म मुझमें, बस थाम मेरा प्याला |
तू हरदम पी मन से केवल, मेरी ही भक्ति-हाला |
ऐसा करने से निश्चित तू, मुझ साकी को ही पाएगा |
फिर सब पापों से मुक्त हुआ तू, पाएगा मेरी मधुशाला |
106
जिसमें तप व भक्ति नहीं हो, उसे न देना गीता प्याला |
जो पीता हो बिन इच्छा के, उसे न पिलाना यह हाला |
उसे न चखाना यह मदिरा, जो दोष-दृष्टी रखता मुझ साकी |
जो प्रेम से इसका मधु पियेगा, पाएगा मेरी मधुशाला |
107
अर्जुन – उवाच –
तेरी कृपा से फूट गया, मोहरूपी मेरा प्याला |
तेरी कृपा से मैंने पी ली, स्मृति की पावन हाला |
अब मैं बस तेरी ही मदिरा, पीने को तैयार खड़ा |
जिसको पीकर मैं तेरी, पा जाऊँगा मधुशाला |
1o8
संजय – उवाच –
जहाँ सव्यसाची, गाण्डीवधारी, अर्जुन सा हो पीनेवाला |
जहाँ स्वयं भगवान पिलाते, साकी बन ज्ञान की हाला |
वहीं विजय, श्री, अचल-नीति व, विभूति की बहती मदिरा |
वहीं मिले पीनेवालों को, सच्ची, पावन मधुशाला |    


मेरी तो यह गीता के, प्यालों की बस एक माला |
जिसमें ज्ञान-भक्ति-कर्म की, भरी हुई जीवन-हाला |
सबके लिए खुली सदा यह, जितना जो चाहे पिले |
जो नित्य पियेगा यह मदिरा, वह पा जाएगा मधुशाला |
           ‘इति – शुभम्