Saturday, January 29, 2011

मिर्ची...व सोच अलग-सच अलग व आगे की कविताएँ


      मिर्ची
मिर्ची-मिर्ची-मिर्ची,
अलग-अलग किस्म की ये लड़कियों सी,
तेज-तर्राट मिर्ची |
हरी-झंडी दिखाती ये हरी-हरी मिर्ची,
जोशीली, जवान, रसीली व तिरछी,
जो सबको लुभाती, लेती सभी की फिरकी |
मिर्ची-मिर्ची-मिर्ची |
छोटी मगर खोटी बड़ी तेज लोंगा मिर्ची,
जो छू ले ओठों को तो बजे मुँह से सीटी,
अच्छे-अच्छों को ये पानी पिला दे,
रखे याद इसे वो अपनी पूरी जिन्दगी |
मिर्ची - - - -
छोटी मगर मोटी ये लोंगा मिर्ची,
ना तो यह तिरछी ना ही यह तीखी,
यह तो बस नाम की ही, पिंग-पांग मिर्ची |
मिर्ची - - - -
काले-धन सी प्यारी ये काली-काली मिर्ची,
पैसेवालों की तुम ही हो आँखों की पुतली,
किसी को भी ‘फ्लोर’ पर तुम ‘डिस्को’ करा दो,
ऐसी थिरकन है तुममें ओ ‘ब्लैक-ब्युटी’|
मिर्ची - - - -
लाल-झंडी दिखाती ये लाल-लाल मिर्ची,
जो सूखी, झुर्राई फिर भी बहुत चरकी,
जो भी उसे छेड़े वो रोवे करे ‘पी-टी’,
मिर्ची - - - -    
सोच अलग –सच अलग
एक आदमी,
आँख बन्द कर,
एक पेड़ के नीचे,
शान्ति से बैठा था |
एक आलसी ने उसे सोता हुआ,
एक भक्त ने उसे उपासक,
और एक ज्ञानी ने उसे,
ध्यान-मग्न बतलाया |
वस्तु-स्थिति एक ही,
मगर स्वभावानुसार ,
सभी की सोच अलग-अलग |
जबकि,
कुछ और ही होता है सच |
वास्तव में वह,
इनमें से कुछ नहीं था,
वह तो एक अन्धा था |

माटी का दीया
मैं तो बस एक माटी का दीया,
बस जलते ही रहने को मैंने जनम लिया |
न जाति, न सम्प्रदाय, न ही मेरा कोई वर्ण,
रोशन सबको ही करना, बस इकलौता मेरा धर्म |
मेरा तेल व जलती बाती, रोज-रोज ही घटती जाती |
फिर भी जग को मरते दम तक, करता रोशन |
चाहे मेरे तल रहा हो, हरदम ही तम |
मैं सूर्य नहीं फिर भी मुझसे, जो बन पड़ा वह किया |
एक कर्मयोगी, कर्तव्यनिष्ठ बन, जीवन अपना जीया |
मैं तो बस एक माटी का दीया |

      मुक्तक
मेरी सांसों ने उनकी सांसों से कुछ कहा,
उनकी सांसों ने मेरी सांसों से कुछ कहा,
फिर सांसों से सांसे टकराई,
और गरम हो गई बीच की हवा,
जिसमें सब कुछ पिघल गया |
नाच-गाना, हंगामा, डिस्को, पब,
गम भुलाने के लिए एक नशा बस,
ऐसे ही जो हो रही है, पूजा-पाठ, कथा-भागवत,
वह भी एक बेहोशी जो सुलाती मदहोश कर,
पर जो दिखाता सत्य-राह, एक प्रकाश-दीप बन कर,
वह तो सत्-गुरू ही होता, जो जगाता झिंझोड कर |

      नेता
लहरों से सतही नेता,
करते हरदम शोर-तमाशा |
सागर से संत-ज्ञानी,
रहते हैं मौन सदा |
क्योंकि उन्हें है यह पता, कि-
या तो ये लहरें,
कभी तूफ़ान, कभी सुनामी बन,
बस बर्बादी लाएँगी |
या,
किनारों से टकरा,
खुद ही मिट जाएँगी |
बाकी कभी भी किसी के,
कुछ भी काम न आएँगी |  

   सच्चा धर्म
मन्दिर, मस्जिद, पूजा-पाठ या नमाज, सब मुखौटे,
पंडित, मुल्ला चला रहे, असली बता ये सिक्के खोटे,
सुविधाजनक जिसे जान हम, बिल्ली सी कर आँख बन्द, बहुत खुश होते,
जीवन योंही व्यर्थ कर रहे, कभी भेड़ तो कभी बन तोते,
मृगमरीचिका से जिसे ढूंढते फिर रहे, कभी भागते, कभी दौड़ते हम,
वह तो हमारे ही अन्दर बसा सच, जिसे खोजना ही है बस सच्चा धर्म |

    मिलनसार बूंद
अथाह, गहन सागर, होता है निरहंकार,
सभ्य, नम्र बूंद होती है मिलनसार,
केवल मदमाती, अहंकारी लहरों में, आता है उछाल,
इसीलिए वे किनारों से टकरा, मिट जाती हैं,
लेकिन मिलनसार बूंद सागर में मिल,
सागर ही बन जाती है |

    गुस्सा
देखो वह  आ रहा है,
चले आ रहा है,
तूफ़ान की गति से, अन्दर घुसे चले आ रहा है,
मेरे मजबूत किले के, बहादुर प्रहरी भी,
उसे नहीं रोक पाए,
और वह बड़े जोर-शोर से अन्दर आ ही गया,
मैं बेबस, असहाय सा कुछ भी न कर सका,
हाय! मैं कितना पराधीन था,
वह कोई और नहीं,
मेरा ही गुस्सा था |
       

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