Thursday, November 17, 2011

मनुष्य शाकाहारी या माँसाहारी?


       मनुष्य- शाकाहारी या मांसाहारी ?
   प्रकृति में सब कुछ नियमबद्ध है | उसमें जो कुछ भी घटता है उसको  वैज्ञानिक धरातल पर कसा जा सकता है | जब भी कोई उसके विरुद्ध जा उससे छेड़छाड़ करता है तो उसके दुष्परिणाम उसके साथ-साथ अन्य सभी को भी भोगना पड़ते हैं |
       मानव, प्रकृति की सबसे परिष्कृत रचना है | जिसमें उसने बुद्धि का एक ऐसा भण्डार भर दिया है कि यदि वह उसका उपयोग विवेक से करे तो इस धरती को स्वर्ग भी बना सकता है व स्वयं का उत्थान कर ईश्वरत्व भी प्राप्त कर सकता है | किन्तु मनमौजी मनुष्य ने उसका उपयोग अपने स्वार्थ के लिए ज्यादा किया | वह अपनी बुद्धि का उपयोग तथ्यों को तर्कों से झुठलाने में ही करने में अपनी शान समझता आ रहा है | लेकिन सत्य के हीरे को चाहे जितना भी तर्कों की तहों से छुपा लो, वह झूँठ का पत्थर नहीं होता | उसकी चमक उसे जग-जाहिर कर ही देती है |
      ऐसे ही कुछ तथ्य हैं जो शाकाहारी व मांसाहारी प्राणियों में स्पष्ट फर्क बतलाते हैं | मैं उन्हें आपकी जानकारी के लिए यहाँ दे रहा हूँ :     
[१] मांसाहारी प्राणी पानी चाटते हैं जबकि शाकाहारी पानी पीते हैं |
[२] मांसाहारी प्राणीयों के ‘केनाइन’ दांत ज्यादा लंबे व नुकीले होते हैं,                जिनसे वे मांस चीरते-फाडते हैं जबकि शाकाहारियों के ‘केनाइन’ छोटे व   बहुत ही कम नुकीले होते हैं |
[३] मांसाहारियों की आँत की लम्बाई कम होती है क्योंकि वे दूसरों के द्वारा  पचा-पचाया व संचित किया हुआ खाना खाते हैं जबकि शाकाहारियों की आँत की लम्बाई काफी ज्यादा होती है क्योंकि उन्हें अपना खाना खुद ही पचाना होता है |
[४] मांसाहारियों का पेट छोटा होता है जबकि शाकाहारियों का पेट बड़ा होता है |
[५] मांसाहारियों के नाख़ून मजबूत, लम्बे व नुकीले होते हैं, जिनका इस्तेमाल वे शिकार करने व उसको चिर-फाड़ करने में करते हैं | जिन्हें वे उपयोग न होने पर मोड़ कर पैरों की गद्दीदार पगथलियों के नीचे छुपा लेते हैं जबकि शाकाहारियों के नाख़ून छोटे व गोलाई लिए होते हैं जिन्हें वह मोड़  नहीं सकता और न ही उनकी पगथलियाँ गद्दीदार होती है |   
    गाय, बकरी, घोड़ा, हिरण, नन्हां खरगोश, लम्बा जिराफ, शक्तिशाली व विशाल हाथी आदि सभी शाकाहारी जानवर भी जानते हैं कि भोजन अपने शरीर के लिए अपनी प्रकृति अनुसार करना चाहिये ना कि मनानुसार सिर्फ़ स्वाद के लिए | क्योंकि अपनी प्रकृति के विरुद्ध जा सिर्फ़ स्वाद के लिए कुछ भी खाना अपने हाथ से अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है, जिसके दुष्परिणाम से सभी वाकिफ़ हैं |
    अब आप स्वयं ही मनुष्य के बारे में अपने विवेक से निर्णय करें कि वह शाकाहारी है या माँसाहारी |
   डॉ. द्वारका बाहेती 'द्वारकेश'      

Friday, November 4, 2011

तम्बाकू की विनती


       तम्बाकू की विनती
मैं अलबेली तम्बाकू, प्यार करूँ गर्दभराज से,
आकर्षित, सम्मोहित करती, उनको अपने महक भरे प्यार से |
लेकिन उनको तो नफरत है, मेरी रंगत, खुशबू तक से,
अतः जलभुन कर बनी विष-बाला, इर्षा, द्वेष, जलन, मत्सर से |
पर मनुज दीवाना मुझ पर मरता, पागल, मतवाला हो कर,
मजनूं सा पाने को मुझको, भटक रहा हर गली-डगर |
कभी खैनी, सूखा, सुरती, नसवार, कभी गुटके में शृंगारित कर,
कभी पनेडी से लाकर तुम, पीते मस्ती में मेरा रस |
कभी बीड़ी, सिगरेट, चुरुट, सिगार, कभी हुक्का व चिलम सजाकर,
मेरा चुम्बन लेने को तुम, कितने व्याकुल, कितने बेकल |
मेरे धुँए के आलिंगन में, तुम अपने फ़िक्र, गम उड़ा रहे,
लेकिन मेरा डाह-विष, तुम्हें अन्दर-अन्दर जला रहे |
तुम चाहे मेरे आशिक हो, पर- मैं तुमसे प्यार नहीं करती,
मुझसे बलात्कार का दण्ड, हरदम तुम्हें दिया करती |
तुम सोच रहे जीवन में अपने, मजा ले रहे मेरा हर पल,
लेकिन तुम्हें बतौर सजा मैं, देती टीबी, अल्सर, केन्सर |
मैं पतिव्रता हूँ वफादार, केवल गर्दभराज के प्रति,
वे पत्नी माने, न माने, मैं उन्हें मानती अपना पति |  
मैं नहीं तुम्हारी हो सकती, पर- यदि तुम सच्चे प्रेमी हो,
तो पाने की त्याग कामना, प्रेम-भाव से मुझे छोड़ दो |