Wednesday, May 23, 2012

धर्म


               धर्म
                डॉ. द्वारका बाहेती     
   धर्म को लेकर इस दुनिया में जितने विवाद व दंगे हुए हैं शायद उतने किसी भी अन्य कारण से नहीं हुए होंगे | सभी मनुष्य अपने संस्कार या पूर्वाग्रह सिद्धान्तों के वशीभूत हो अपने-अपने धर्म को सर्वश्रेष्ट व दूसरे के धर्म को एकदम निकृष्ट बतलाने में लगे हैं | किन्तु आज से पाँच हजार साल पहिले जब ईसाई धर्म पैदा भी नहीं हुआ था व इस्लाम का तो कहीं अतापता ही नहीं था, यदि श्रीकृष्ण गीता में धर्म की बात करते हैं तो वह कौन सा  धर्म था, जानना होगा | धर्म के वास्तविक मायने समझना होंगे |
     धर्म का अर्थ  होता है धारण शक्ति | वह शक्ति जो किसी पदार्थ के स्वरुप को बनाए रखती है |  जैसे अग्नि का स्वभाव है उष्णता अतः उष्णता ही अग्नि का धर्म हुआ | दूसरी बात अग्नि सदैव अपने उद्गम सूर्य से मिलने के लिए लालायित रहती है, इसीलिये उसे चाहे जैसे भी रखें, उसकी ज्वाला सदैव ऊपर की ओर ही होती है | इसी प्रकार पानी का स्वभाव शीतलता है व उसका उद्गम सागर है, अतः पानी सदैव नीचे समुद्र की ओर भागता है | अतः यही पानी का धर्म है | अर्थात सभी पदार्थों का धर्म होता है अपने स्वाभाविक कर्म करते हुए अपने उद्गम से मिलने की निरन्तर कोशिश करना | किसी भी पदार्थ के धर्म को किसी ने बनाया नहीं है, यह तो अपोरुषेय होता है, अर्थात यह अतीत में भी था, वर्तमान में भी है व भविष्य में भी रहेगा अतः इसे हम उस वस्तु का सनातन धर्म भी कह सकते हैं | इसका मतलब यह हुआ कि किसी के द्वारा धर्म या सत्य का साक्षात्कार या दर्शन तो किया जा सकता है किन्तु उसका निर्माण नहीं किया जा सकता | जिसका निर्माण व्यक्ति करता है वह उसका मत होता है, न की धर्म | मत विवाद का विषय बनता है क्योंकि वह व्यक्तिनिष्ठ (सब्जेक्टिव) होता है, धर्म निर्विवाद होता है क्योंकि वह वस्तुनिष्ठ (आब्जेक्टिव) होता है | आज हमनें मत या सम्प्रदाय को ही धर्म मान लिया है | इसी कारण इतने साम्प्रदायिक दंगे-फसाद हो रहे हैं, वरना धर्म को लेकर कोई भी विवाद हो ही नहीं सकता | चूँकि सभी का अपना एक धर्म होता है अतः कोई भी वस्तु मत-निरपेक्ष तो हो सकती है किन्तु धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकती, चाहे फिर वह कोई देश ही क्यों न हो | मत रूचि का विषय है और सभी की रूचि एक जैसी नहीं हो सकती किन्तु धर्म तो स्वभाव होता है न की रूचि का विषय | मनुष्य सच्चिदानन्द स्वरुप चैतन्य आत्मा है, अतः वही उसका धर्म है |
    मनुष्य परमात्मा की सबसे उत्कृष्ट कृति है जिसे मननशीलता अर्थात विवेक प्राप्त है | मनुष्य को छोड़ अन्य किसी भी पदार्थ में विवेक शक्ति नहीं होती, अतः वे स्वभावगत कार्य करते समय अच्छे-बुरे का निर्णय नहीं कर पाते | इसीलिये हर परिस्थिति में उनका व्यवहार सभी के प्रति एक सा ही होता है | किन्तु विवेकशील मनुष्य को अपने सभी कर्म अच्छी तरह से सोच-समझ कर करना चाहिये, अन्यथा उसमें व जानवर में कोई फर्क नहीं है | अतः उसके परिस्थितिजन्य अलग-अलग कर्म करते हुए अलग-अलग धर्म होते हैं | उदाहरण के लिए किसी निरपराध की हत्या करना अधर्म है, किन्तु अपने देश की रक्षा करते समय युद्ध में दुश्मन पर गोली चलाना एक सैनिक का कर्तव्य-कर्म भी है व धर्म भी फिर चाहे वह उसका अपना भाई ही क्यों न हो अर्थात मनुष्य का धर्म देश-काल-पात्र के अनुसार अलग-अलग होता है | अतः मनुष्य धर्म को यदि परिभाषित करना हो तो कुछ इस प्रकार से किया जा सकता है –
   विवेकपूर्ण अपने स्वाभाविक कर्तव्य कर्मों को निष्काम भाव से करते हुए स्वयं के आत्मस्वरूप को जानना मनुष्य धर्म है” |
  अब यदि हम इस परिभाषा के हर शब्द पर मनन करें तो हमें मनुष्य धर्म का वास्तविक मतलब समझ आ जाएगा –
१)     विवेक - सच-झूँठ या अच्छे-बुरे का निर्णय करने की शक्ति का नाम विवेक कहलाता है |        
२)    स्वाभाविक – हर मनुष्य का उसकी प्रकृति के अनुसार एक अलग स्वभाव होता है | शास्त्रों ने उसे गुण-कर्म के अनुसार मुख्यतः चार वर्णों में बांटा है – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व क्षुद्र | यहाँ यह बतलाना जरुरी है कि ये चारों किसी जाति के नहीं बल्कि स्वभाव के नाम हैं | लोगों के स्वार्थ व विवेकहीन सोच की वजह से इसको लेकर सदा से काफ़ी उपद्रव होता चला आ रहा है | मनुष्य को अपने स्वभाव के अनुसार ही कर्म करना चाहिये क्योंकि स्वाभाविक कर्म सहज ही बिना किसी अहम् भाव के आनन्द पूर्वक [जॉब-सेटीसफेक्शन] होते हैं | [इस बारे में अधिक जानकारी के लिए मेरा ‘आर्टिकल’ ‘वर्ण-धर्म’ पढ़ें] |
३)    कर्तव्य-कर्म – मनुष्य एक सामजिक प्राणी है | उसके परिवार, समाज, राष्ट्र, निसर्ग, अन्य प्राणियों आदि-आदि के प्रति, विभिन्न देश-काल-पात्र के अनुसार अलग-अलग कर्तव्य होते हैं, जिनका निर्वाह करना ही उसका  कर्तव्य कर्म करना है | लेकिन आज कर्तव्य की कोई बात नहीं करता, सभी सिर्फ़ अधिकार की ही बात करते है | जिसके दुष्परिणाम जगजाहिर हैं |
४)   निष्काम-भाव – अपने स्वभावानुसार, कर्तापन के अभिमान से रहित, बिना कामना व राग-द्वेष के, फल न चाहते हुए किसी भी कार्य को सिर्फ़ लोकार्थ या परमार्थ के लिए करना निष्काम भाव कहलाता है |
५)   आत्मस्वरूप – आत्मस्वरूप यानि स्वयं को जानना | साधारणतया अपने नाम-रूप को ही हम अपना स्वरुप समझते हैं | परन्तु जब भी हम अपने शरीर के बारे में बात करते हैं तो कहते हैं कि यह मेरा हाथ है, यह मेरा पैर है | तो यहाँ यह मैं कौन है ? यहाँ यह मैं वह  सच्चिदानन्द चैतन्य आत्मा है जिसकी वजह से ही हमारा स्वरुप है, जीवन है तथा उसे जानना ही आत्मस्वरूप को जानना है | जैसे बाहरिय दृश्य दुनिया को हम मन से जानते हैं वैसे ही यदि मन का मुँह अन्दर की ओर मोड़ दिया जाय तो उस चैतन्य या आत्मस्वरूप को जाना जा सकता है | इस अन्दर जाने की प्रक्रिया को ही ध्यान तथा आत्मस्वरूप को जानना ही ज्ञान कहलाता  है |
     सारांश में यदि कहा जाय तो अन्दर से आत्मनिष्ठ व बाहर से कर्तव्यनिष्ठ होते हुए कर्मठतापूर्वक अपने सभी कार्य निष्काम भाव से करना धर्म है तथा इसके अलावा अहंकार व स्वार्थवश, मनघडंत कोई भी कार्य करना अधर्म है | क्या हम धर्म के सही माने समझ पाएँगे ? क्या हम मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जान पाएँगे ?
        विवेक से कर स्वाभाविक, निष्काम कर्तव्यकर्म,
         आत्मस्वरूप को जानना, ही मानव का धर्म |

                 || इति – शुभम् ||