मूर्तिपूजा का रहस्य
ईश्वर निराकार,
निर्गुण, असीम, अनन्त व सर्वज्ञ है एवम् हम साकार, सगुण, ससीम, सान्त व अल्पज्ञ |
ऐसी स्थिति में एक साधारण व्यक्ति अपना ईश्वर के साथ कैसे सम्बन्ध स्थापित करे,
उसे कैसे समझे और कैसे उस सम्बन्ध को निरन्तर स्मरण रखे ? इस समस्या के समाधान के
लिए जब हम ईश्वर को भी साकार, सगुण व ससीम बना लेते हैं तो वह हमें हमारे जैसा ही
लगने लगता है, अतः उसके समीप बैठ, उसकी उपासना (उप=पास, आसन=बैठना) करना आसान हो
जाता है | अमूर्त ईश्वर को मूर्त रूप देना ऐसे तो अज्ञान है किन्तु उपासना में हम
इसी अज्ञान का सहारा लेकर ज्ञान की ओर उत्तरोत्तर बढने का प्रयास करते हैं |
उपासना का आधार
मुख्यरूप से प्रतिरूप, निदान व प्रतीक उपासना है | प्रतिरूप उपासना में हम जो भी शिल्प
निर्माण करते हैं उसमें नवीन कुछ भी नहीं होता | उसमें केवल अपूर्व शिल्प की नक़ल
भर होती है | जैसे सूर्य या चन्द्रमा ईश्वर ने बनाया है | यदि हम उनका चित्र या
प्रतिमा बनाते हैं, तो यह उनका प्रतिरूप शिल्प हुआ | प्रतीक उपासना में हम देखते
कुछ हैं और समझते कुछ हैं | उदाहरण के लिए जैसे देखते हैं हम तिरंगा झन्डा, परन्तु
समझते हैं राष्ट्र का सम्मान | यदि कोई उस झंडे का अपमान करे तो हम समझते हैं कि
वह हमारे राष्ट्र का अपमान कर रहा है | हमारे संविधान द्वारा उस तिरंगे कपडे को
राष्ट्र-ध्वज घोषित कर देना मानो उसमें प्राण-प्रतिष्ठा कर देने जैसा है | अतः
मूर्ति उपासक को अज्ञानी नहीं कहा जा सकता क्योंकि ज्ञान-अज्ञान का सम्बन्ध समझ से
है और जब तक समझ ठीक है तब तक उसे ज्ञान hiही कहा जायगा, अज्ञान नहीं | हाँ, यदि हम
उपासना में प्रतीक से उस वस्तु का बोध न कर पाएँ जिसका वह प्रतीक है तो फिर वह
प्रतीक ही नहीं रह जाता | फिर उपासना भी उपासना नहीं रह जाती |
जैसे हम किसी भी शुभ कार्य के पहिले विघ्नहर्ता
विघ्नेश्वर, गणनायक गणेश की मूर्ति-पूजा करते हैं | यदि हम गणेश की मूर्ति में
दर्शाए विभिन्न प्रतीकों को समझ उन पर अमल करें तो हमारा कार्य निश्चित रूप से सफल
होगा अन्यथा वह एक कर्मकांड से अधिक कुछ नहीं रह जाता | इनकी मूर्ति में सुपडे से
बड़े कान यह दर्शाते हैं कि किसी भी शुभ कार्य में सुनो सबकी मगर अन्दर सिर्फ सार
या काम की बात ही जाने दो | अपनी नाक को सूंड सा लम्बा रखो अर्थात अपने मान-अपमान
को सहन करो | एकदंत इस बात का प्रतीक है कि सभी को साथ लेकर चलो | छुपा हुआ व छोटा
मुँह हमें मृदुभाषी व मितभाषी होने का संकेत देता है | छोटी-छोटी आँखें इस बात की
ओर इंगित करती हैं कि छोटी-मोटी बातों को देखा-अनदेखा करो व सिर्फ मुख्य ध्येय पर
ही ध्यान दो | मोटा पेट सभी आलोचनाओं को हजम करने की सीख देता है | बड़ा सिर विवेक
का प्रतीक है | चूहे की सवारी अपने अहंकार को दबाये रखना बतलाता है | दूर्वा व
लड्डू आने वाले सभी अतिथियों में समदर्शी भाव रखने की प्रेरणा देते हैं | यदि हम
इन सभी बातों का ध्यान रख अपना कार्य करेंगे तो निश्चित रूप से हमारा कार्य
निर्विघ्न रूप से पूर्ण होगा | तभी हमारा गणेश-पूजन सफल होगा | ये ही सभी गुण किसी
भी राजा या नेता में भी होना चाहिए तभी वह एक सफल गणनायक बन सकता है | ‘मेनेजमेन्ट’
से जुड़े सभी लोगों के लिए भी यह एक गुरु-मन्त्र से कम नहीं है | इस प्रकार निदान
(किसी समस्या का समाधान, निराकरण) उपासना में एक ही मूर्ति में विभिन्न
प्रतीकों द्वारा किसी समस्या का पूर्ण समाधान बतलाया जाता है |
यदि कोई स्थूल
प्रतीक के बिना ही सूक्ष्म पर चित्त को स्थिर रख सकने में समर्थ है तो उसे न
मूर्ति की आवश्यकता है न अन्य किसी प्रतीक की |
उपासना के लिए श्रध्दा एक बहुत आवश्यक घटक होता है | श्रद्धा भावना का नाम
है,जिसका
सम्बन्ध ह्रदय से होता है | श्रद्धा वही होती है जो हमें हमारे
आध्यात्मिक
मार्ग पर निरन्तर आगे बढ़ाने में मदद करती है | अतः हमें
श्रद्धा या तो
उस अमूर्त परमात्मा के उस मूर्त रूप में रख अपनी उपासना
करनी चाहिए या
फिर उस तत्वदर्शी, ईश्वरस्वरुप सतगुरु में जो हमें हमारे
गंतव्य तक
पहुँचाने में मदद करता है | अतः इसके अलावा जो भी हम
करते है वह
अन्धविश्वास ही होता है, श्रद्धा नहीं | श्रद्धा में तर्क नहीं चलता
क्योंकि यह
बुद्धि का विषय नहीं है | यहाँ मैं-मेरा नहीं रहता बस आराध्य के
प्रति पूर्ण
समर्पण का भाव ही रह जाता है | तभी वहाँ मिलन का गंगासागर
बन पाता है,
एकत्व का कमल खिल पाता है | ऐसी श्रद्धा से कभी भी अनिष्ट
नहीं होता | मीरा,
सूरदास, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस आदि इसी श्रेणी के
परमतत्व ज्ञाता
थे |
मूर्तिपूजा योग साधना या आध्यात्म की सीढी का
पहला पायदान होता है | यह अहम् रूपी ‘मैं’ से ईश्वर रूपी ‘तू’ पर जाने के लिए एक
अच्छा माध्यम है | जहाँ मेरा ‘मैं’, ईश्वर रूपी ‘तू’ में पूर्ण रूप से विलीन हो
जाता है, तथा जब ऐसा हो पाता है तभी मूर्तिपूजा सार्थक हो पाती है | जब इसकी
सार्थकता पूर्ण हो जाती है तब इसे छोड़ देना आवश्यक होता है, तभी हम अगले पायदान पर
जा सकते हैं | यदि हम इसे ही सजाते-संवारते रहे तो फिर यहीं अटक जायेंगे और कहीं
भी नहीं पहुँच पाएंगे सिर्फ जिंदगी भर मूर्तिपूजा ही करते रह जायेंगे, जो ‘गीता’
के अनुसार एक शास्त्र-सम्मत विधि न हो कर मनघडंत आडम्बर भर होता है | ऐसे मूढ़ लोग
जब अपनी किसी मनोकामना के लिए मंदिर में जा मूर्ति के पैर छूते हैं तब भी वह उनके
लिए एक पाषाण का टुकड़ा ही होती है और मनोकामना पूर्ण न होने पर जब वे ही लोग उसी
मूरत को बुरा-भला कहते हैं या गाली देते हैं तब भी वह एक पाषाण का टुकड़ा ही होती
है | ऐसे लोग सदा ही अपनी जिम्मेदारी, अपनी असफलता दूसरों पर ढोलने या लटकाने के
लिए एक खूंटी ढूंढा करते हैं एवम् इसके लिए भगवान की मूर्ति से अच्छी खूंटी और
क्या हो सकती है ? जैसे हमने पहली सीढ़ी में अमूर्त को मूर्त रूप दिया वैसे ही अगली
सीढ़ी पर जाने के लिए हमें मूर्त से अमूर्त में जाना पड़ता है | जैसे हमने मूर्ति का
निर्माण किया वैसे ही मूर्ति-भंजन करना भी जरुरी है वरना वह एक कर्मकांड से अधिक
कुछ नहीं रह जायगा |
किन्तु आज के इस युग में जब तक कोई एक सर्वमान्य,
व्यावहारिक परन्तु शास्त्रीय मूर्ति-पूजा की पद्धति को न अपनाया जाय, तबतक समस्त
प्रकृति व जन-कल्याण के लिए अन्य कोई भी पूजा निरर्थक ही होगी | किसी भी उपासना का
अंतिम लक्ष्य उस निर्गुण-निराकार परमात्मा की उपलब्धि, उसमें समावेश या उससे एकत्व
स्थापित करना होता है | मनुष्य-देह (कोई भी जीव कहना ज्यादा उपयुक्त होगा) में
स्थित जीवात्मा, परमात्मा का ही अंश होता है | शास्त्रीय दृष्टी से आत्मा व
परमात्मा एक ही हैं, उनमें कोई फर्क नहीं होता | अतः वह एकमात्र उपास्य ईश्वर है
एवम् जिस देह में वह बैठा है वह एकमात्र प्रत्यक्ष मन्दिर | अतः हर मानव-देह ईश्वर
का साक्षात् मंदिर ही होता है | यदि हम उसकी उपासना न कर सके तो अन्य किसी भी
मंदिर में बिठाई पाषाण-मूर्ति की पूजा से कभी कोई उपकार नहीं हो सकता | जिस क्षण
हम प्रत्येक मनुष्य-देह के सन्मुख भक्तिभाव से खड़े हो, वास्तव में उसमें
ईश्वर-दर्शन कर सकेंगे व मैं-मेरा व तू-तेरा के भाव से मुक्त हो उससे एकत्व-भाव
स्थापित कर सकेंगे, उसी क्षण हम सभी बन्धनों से मुक्त हो परमपद पा लेंगे | तभी हम सच्चे
प्रेम को समझ, प्राणीमात्र से प्रेम कर सकेंगे | यही सबसे अधिक व्यावहारिक,
शास्त्रीय व प्रत्यक्ष फल देने वाली उपासना है | इसका किसी भी मत-मतान्तर से कोई
सम्बन्ध नहीं है | चूँकि हर मत प्राणी मात्र में प्रेमभाव सिखलाता है अतः कहीं कोई
झगडा-विवाद भी नहीं हो सकता | तथा इस तरह हर कोई उत्तरोत्तर प्रगति कर अपने परमलक्ष्य
की प्राप्ति भी कर सकता है | तभी यह संसार रहने के लिए सारगर्भित हो पाएगा |