अमृत- क्षण
पनघट जाने निकली राधा,
जिसका था अल्हड़ यौवन |
साथ लिए अपनी मटकी,
अपनी मस्ती, अपनी ही धुन |
अस्त-व्यस्त सब चुनरी-चोली,
आँचल उसका मचल रहा |
बिखरे बाल घनघोर घटा से,
मुखडा जैसे उसका चंदा |
मदमाती सी चली जा रही,
वह दुनियाँ से बेखबर |
गदराये अपने यौवन से,
अन्जान, अनभिज्ञ वह अल्हड़ |
राह मिला जब उसे श्याम,
नटखट, मोरमुकुट, मुरलीधर |
अल्हड़ यौवन लयबद्ध हुआ,
जब प्रेम की मुरली ने छेड़े स्वर |
वह घबराई, वह शरमाई,
गालों पर फिर लाली आई |
लाज से नजर झुकी उसकी, जब-
सरकता आँचल रोक न पाई |
श्याम के नयनों के तीरों ने,
राधा के दिल का किया छेदन |
वह उफ़! तक भी न कर पाई,
जब श्याम ने लिया उसे आलिंगन |
बाँहपाश में बंधा हुआ,
कसमस करता उसका बदन |
उसके रंग में रंग गई वह,
जब होठों से होठों का हुआ मिलन |
साँसों से साँसें टकराई,
हुई एक उनकी धड़कन |
प्रेम के सागर में जब डूबे,
बना रास वह अमृत-क्षण |
मैं खुश हूँ
मैं खुश हूँ,
जी हाँ मैं बहुत खुश हूँ |
क्योंकि,
हमारी गरीबों की गन्दी बस्ती में,
सिर्फ़ एक पानी का नल है,
जिससे हमें नियमित गटर-गंगा का शुद्ध जल मिलता है |
जिसे पी कर मैं भला-चंगा व स्वस्थ हूँ |
इसीलिए मैं खुश हूँ |
जी हाँ मैं खुश हूँ,
क्योंकि,
यहाँ हमारी आर्थिक-प्रगति के ठेकेदार ये पूँजीपति,
और मजदूरों के मसीहा ये यूनियन-लीडर,
जिनका अस्तित्व मजदूरों पर टिका है,
उन्हीं की बलि चढ़ा,
अपने बड़े-बड़े बंगले बनाते हैं,
और मजदूरों को उनके, अपने-अपने घरों के सपने दिखाते हैं |
जिन्हें देख मैं भी खुश हूँ |
जी हाँ मैं बहुत खुश हूँ |
क्योंकि,
यहाँ भव्यता की प्रतीक ये ऊँची-ऊँची ईमारतें,
व गन्दगी व बदबू से भरी ये झुग्गी-झोपड़ियाँ,
साथ-साथ व पास-पास एक साथ पनपती हैं |
व झोपड़ी में भूख से तडफता व बिलखता बच्चा,
यह भव्यता देख शायद चुप हो जाए,
यही सोच मैं भी खुश हूँ |
जी हाँ मैं बहुत खुश हूँ |
क्योंकि,
यहाँ ये नेता व पुलिस जो हमारे रक्षक हैं,
और ये गुंडे, माफिया के लोग, जो हमारे भक्षक हैं |
‘राम-राज्य’ की कल्पना की तरह,
एक ही घाट का पानी पीते हैं |
और शायद गाँधीजी स्वर्ग से ,
अपना यह ‘सुनहरा भारत’ देख खुश हो रहे हों,
इसीलिए मैं भी खुश हूँ |
जी हाँ मैं बहुत खुश हूँ |
संस्कार – समझदार
किसी भी सवाल का सीधा उत्तर जो बतलाते अपने अनुसार,
उनकी आने वाली पीढ़ी चलती है उसी राह एक भेड़चाल,
और ये ही कहलाते हैं संस्कार |
लेकिन जो किसी भी सवाल का, बिना उत्तर की चिंता किये,
सिर्फ़ हल करने का तरीका बतलाते हैं,
उनकी आने वाली पीढ़ी होती है विवेकशील, समझदार |
मुक्ति का बन्धन
गर्द से मलिन काँच, राख़ से ढकी आँच |
ममता से बंधी मात, नियम से बंधा समाज |
हर सम्बन्ध किसी न किसी, बन्धन से बाँधता |
कमल-पत व बूंद सा, बन्धन मैं चाहता |
मुक्ति के बन्धन से, बंधना मैं चाहता |
मर्यादित प्रकृति, समय बंधे दिन-रात |
भक्ति से बंधा भक्त, अवतार बंधे देह साथ |
तुमसे जुड़ने को मैं, स्वयं ही को बाँधता |
गीता के कर्म सा, बन्धन मैं चाहता |
मुक्ति के .............
त्याग से बंधा सन्यास, शादी बंधी विश्वास साथ |
मित्र बंधा मैत्री साथ, सीमा में बंधा तालाब |
प्राण स्वयं देह से, बंधना है चाहता |
फूलों की खुशबू सा, बन्धन मैं चाहता |
मुक्ति के................
अखण्डित - आसमां
काला, सफ़ेद, लाल, पीला, इन्द्रधनुषी या केसरिया,
नीला, हरा, या चमकीला, चाँद-सितारों सा सजीला,
अलग-अलग बतला रहे सब आसमां |
‘अन्धों का हाथी’ बना क्यों, यह अखण्डित आसमां |
खण्ड-खण्ड खण्डित हुआ क्यों, यह अखण्डित आसमां |
झगडें सभी ले अपना-अपना आसमां |
खून की नदियाँ बहा,रंग रहे ये आसमां |
सूर्य, चंदा और सभी नक्षत्र-तारे,
भयभीत, कम्पित भागते, छुप रहे बादलों में |
हमें भी न अलग कर दें, अलग जिनके आसमां |
खण्ड-खण्ड...............
सब तरफ से बन्द अंधी कोठारी में, जंजीरों से हम बंधे सब |
लोहे की सलाखों का मजबूत जाला, बस जिसकी छत |
‘कूप-मंडूप’ के कुएँ सा, क्यों बना यह आसमां |
खण्ड-खण्ड...............
तोड़ सब दीवार, जाले, स्वछन्द पखेरू से उडें |
गहरे नीले आसमां में, उन्मुक्त पवन से फिरें |
मिलेंगे सभी रंग, पर एक ही हो आसमां |
मृगतृष्णा सी बाकी सभी हों भ्रान्तियाँ |
खण्ड-खण्ड खण्डित न हो, यह अखण्डित आसमां |
स्वच्छंद – रिश्ते
रिश्तों को बन्धन में न बांधो, उन्हें स्वच्छंद रहने दो |
जैसे रुका हुआ पानी दुर्गन्धित होता है,
और बिमारियों के कीड़ों को जनम देता है |
जैसे ज्वालामुखी जब तक नहीं फूटता,
अन्दर ही अन्दर भरा, घुडघुडाता रहता है |
जैसे पेट में रुकी गुड़गुड़ करती वायु जब निकलती है,
तो बदबू से हंगामा खड़ा करती है |
जैसे मन में दबी पड़ी भावनाएं, कुंठाएं,
मानव को विक्षिप्त कर देती हैं |
वैसे ही बंधे रिश्ते सड़-गल कर रिसने लगते हैं |
उन्हें आसमां सा असीम, हवा सा सुरभित होने दो |
सागर सा विशाल, वनों सा घना व हरा-भरा होने दो |
पर्वत सा उत्तंग, मजबूत, नदियों सा बहने दो |
उन्हें रिश्तों के बन्धन में न बांधो, स्वच्छंद ही रहने दो |
जब दो नदियाँ मिलती हैं, संगम कहलाती हैं,
और एक नया जोश, नई गति पाती हैं |
दो दिलों का मिलन, प्यार कहलाता है,
और एक नई उमंग भर जाता है |
उन्हें मिलने दो, जुड़ने दो,रंगबिरंगे फूलों सा खिलने दो |
महकती, चहकती प्यार की, बगिया एक बनने दो |
उन्हें रिश्तों के बन्धन में न बांधो, स्वच्छंद ही रहने दो |
आंकड़े
आंकड़े !
जी हाँ ये आंकड़े,
सरकारी आंकड़े !
नेता के वादों से कभी न झूँठ बोलते ये आंकड़े |
अंक व अक्षरों के तानों-बानों से बने ये आंकड़े,
उघाड़ते नहीं, ढांकते हैं |
जैसे, गुंडे, बदमाश, तस्करों को, जनसेवक नेता का चोंगा ढक देता है |
जैसे, खुल्लमखुल्ला नरसंहार को, धर्म का जामा ढक देता है |
वैसे ही, भूखे को आश्वासन की रोटी व –
नंगों को वादों की लंगोटी से ढक देते हैं आंकड़े |
बहुत ही सज्जन व साधु प्रवृति के होते हैं ये आंकड़े |
अश्लीलता जिन्हें बिल्कुल पसन्द नहीं आती,
अतः द्रोपदी को नंगा नहीं होने देते ये आंकड़े,
बल्कि साड़ी को लम्बाने व खेंचने में ही ऐसा फँसा देते हैं, कि-
किसकी साड़ी है, यह भी भुला देते हैं आंकड़े |
मृगतृष्णा से भी सच्चे इन सरकारी आंकड़ों को,
यदि कोई उघाड़ने की कोशिश करे,
तो, उसे बलात्कारी करार कर,
अन्धे-कानून की जंजीरों में जकड़ देते हैं ये आंकड़े |
असफलता को सफलता का चोला पहनाना,
सब दुःख-दर्दों पर खुशियों का मुलम्मा चढ़ाना,
जो होता नहीं, वही दिखाना,
बहुत अच्छी तरह से करते हैं, बन आँचल ये आंकड़े |
जी हाँ सदा सच बोलते ये कठपुतली आंकड़े |
कभी न झूँठ बोलते ये सरकारी आंकड़े !
जिन्दगी
जिन्दगी है जिन्दगी, जियें क्यों मातम मनाएं |
जिंदादिली है जिन्दगी, क्यों इसे मुर्दा बनाएं |
मौत के खौफ़ से क्यों, जिन्दगी को हम डराएं |
मौत आना सच है, फिर उसे क्यों हम झुठाएं |
जीना ही है जिन्दगी, फिर मौत पर क्यों बलि चढाएं |
दो ‘कल’ के बीच में क्यों, आज को हम यों मिटाएं |
जिन्दगी है..............
बसन्त ऋतु है जिन्दगी, क्यों इसे पतझड़ बनाएं |
पूर्णिमा सी जिन्दगी को, क्यों अमावस से डराएं |
सप्तरंगी जिन्दगी को, और भी रंगी बनाएं |
आसमां सी जिन्दगी को,हम सितारों से सजाएं |
जिन्दगी है...............
जिन्दगी है एक तोहफ़ा, यादगार इसे बनाएं |
कोमल, मधुर जिन्दगी को, फूल सा अब हम खिलाएं |
ताजगी से भरा जीवन, खुशबुओं से महकाएं |
खूबसूरत जिन्दगी को, और भी सुन्दर बनाएं |
जिन्दगी है................
मेरा भारत महान
जब तक दावानल सी बढ़ती, जानलेवा भूख,
और अकाल में सूखी धरती सी, प्यास बनी रहेगी |
जब तक ठण्ड सा ठिठुरता, गरीब का नंगापन,
और बाढ़ की तरह फैलता, आतंकवाद रहेगा |
जब तक टीवी पर विज्ञापनों की तरह, बढ़ती बेरोजगारी,
और भूकम्प की तरह निगल जाने वाली, बीमारियाँ रहेंगी |
जब तक ‘पाल्यूशन’ की तरह फैलता, दमघुटाऊ भ्रष्टाचार,
व ‘चाइनीज-नूडल्स’ सा अपने आप में उलझा, सरकारी-तंत्र रहेगा |
जब तक महानगरों की बड़ी-बड़ी गटरों सी, बड़ी-बड़ी राजनैतिक पार्टियाँ,
फैक्टरियों की तरह धर्म व जातिवाद का, दूषित जहर उगलती रहेंगी |
जब तक योजनाओं के चलचित्र की प्रगति के बीच,
रिश्वत के बढ़े-बढ़े ‘कमर्शियल-ब्रेक’ आते रहेंगे |
जब तक अय्याशी व नंगी विलासिता के भूखे भेडिये,अपनी रंगीनियों के लिए,
व्यभिचार को कला व आधुनिकता के परिधान में लपेटते रहेंगे |
और जब तक प्लास्टिक की गन्दी थेलियों की तरह, बिखरे-फैले ये नेता,
अपने अस्तित्व के लिए, देश को बंजर बनाते रहेंगे |
तब तक ‘राम-राज्य’ सा मेरा ‘सुनहरा-भारत’ एक दुखद स्वप्न ही रहेगा |
तब तक यह मजबूर, नग्न ‘केबरे-डांसर’ की तरह लुभाता,
कुण्ठित, भयानक सत्य ही रहेगा |
तब तक यह गटर के इकट्ठे, रुके पानी में,
चाँद पकड़ने की नाकाम कोशिश ही रहेगी |
तब तक यह नेताओं के वादों सी, मृगमरीचिका ही रहेगी |
हे मेरे देश की जानबूझ कर, अन्जान बनी जनता,
क्या यही है ‘जय-जवान’, ‘जय-किसान’, ‘जय-विज्ञान’ ?
और क्या ऐसे ही बनेगा, ‘मेरा भारत महान’ ???
माँ
सूर्य उर्जा सी ममता देती, चंदा सी शीतलता देती |
वह दीपक सब उसकी ज्योति, सीप से घर में माँ है मोती |
सद्गुण के बीज वह बोती, फूलों सी खुशबू भर देती |
प्यार से ओत-प्रोत वह होती, त्याग की मूरत माँ ही होती |
वह सोर्यमंडल से घर का सूरज, नक्षत्र, चाँद से बाकी हैं सब |
जो घूमते उसके चारों ओर, पाते उससे ही उर्जा बस |
भ्रष्टाचार
भ्रष्टाचार,
एक मैला, बदबूदार,
जिसमें भ्रष्टाचारी,
सूअर सा, शान्ति से पड़ा,
हँसता, खेलता,ले रहा उसका मजा |
जबकि,
सारा वातावरण, सारा आवाम,
उसकी असहनीय सडांध से,
हो रहा दूषित, हेरान, परेशान |
मगर,
असहाय सा,
बन्द कर अपनी आँख व नाक,
बन गूंगा व बहरा,
सब कुछ वह सह रहा,
कुछ भी ना कह रहा,
ना ही कुछ कर रहा,
कैसी विडम्बना है !!!
जीवन – लक्ष्य
नीला, खुला, विशाल, स्वच्छंद अम्बर,
श्वेत-श्यामल बादलों के, जिसने पहन रखे जेवर |
वृक्षों से हरे वस्त्र, पर्वत से वक्षस्थल,
जिसके मध्य बह रही, नदिया एक बहुत चंचल |
इधालाती, बलखाती, आवेश अपना दिखलाती,
पुरजोर सागर मिलन की, चाह उसको चहकाती |
दिख रहा समीप ही, सागर असीम, गम्भीर, गहन,
सागर-सरिता मिलन, तन-मन भर रहा चेतन |
अस्ताचल जा रहे, सूर्य की लालिमा,
उदित होते सूर्य सा, रक्तिम उत्साह लिए |
नभ, जल व अवनी को, रंगों से भर रहा,
वही आशा, वही जोश, वही उत्साह लिए |
अन्तिम क्षण तक वह कर्मठ, देता ही रहा प्रकाश,
असफलता के तम से, न हुआ वह हताश |
ले बार-बार आऊँगा, उमंग भरी रक्तता,
कर्ता ही रहूँगा कर्म, जब तक न मिले सफलता |
कितना भी लगे वक्त, लक्ष्य मेरा पूर्णता |
सफलता की गूंज
स्याही से स्याह नभ को, जब मिली पहली किरण,
प्राची में अरुणोदय भरे, नया उत्साह नई उमंग |
स्याह नभ धीरे-धीरे, रक्तिम हो उठा,
सोया हुआ जग सारा, फिर चेतन हो उठा |
श्यामल से लाल फिर, नीला होता गगन,
अँधेरे में आशा जागी, मन में उजाले की लगन |
मुर्गे की बाग, सफलता का पहला कदम,
पक्षियों की चहचहाहट, जोश से भर गया मन |
मंदिरों में बज उठे, घंटे, नगाड़े व मृदंग,
हर तरफ एक नई चाहत, विजयनांद सा गुंजन |
असफलता पर सफलता की, विजय निश्चित हर कदम,
जीवन फिर मुस्कराया, हर्षित हुआ हर आँगन |
मुखौटे
जी हाँ देखिये तरह-तरह के मुखौटे,
मुखौटे ही मुखौटे, सब ओर मुखौटे |
कुछ लुभावने, कुछ डरावने,
मुखौटे जहाँ सच, लगे सच मुखौटे |
इन्सान के भी हैं, शैतान के भी हैं,
कुछ मुखौटे तो भगवान के भी हैं |
शेर खाल शिष्य की, गुरु भी मुखौटे,
आडम्बर के पहने सभी ने मुखौटे |
काले, सफ़ेद व रंगीन मुखौटे,
अतरंग मुखौटे, बदरंग मुखौटे |
हर आदमी के पास, अनेकों मुखौटे,
जो स्वयं को दे धोका, ऐसे असल मुखौटे |
पुलिस का चेहरा, रक्षक का मुखौटा,
पर भक्षक बन बैठा, ऐसा ये मुखौटा |
गुंडों ने पहना, शेरों का मुखौटा,
आवाम ने पहना, गीदड़ का मुखौटा |
हीरो-हिरोइन का, आदर्श मुखौटा,
फीके सब पकवान, पर लुभाए मुखौटा |
खिलाडियों ने पहना, बन्दर का मुखौटा,
सटोरियों का, मदारी मुखौटा |
हिन्दू का मुखौटा, मुस्लिम का मुखौटा,
मन्दिर का मुखौटा, मस्जिद का मुखौटा |
कभी सवर्ण का, कभी दलित का,
कभी अमीर तो कभी गरीब का |
इन सबको लुभाए, नेता का मुखौटा,
गिरगट सा रंग बदले, ये वो है मुखौटा |
इनका भी बाप है, अफसर का मुखौटा,
लाल-फीते से सजा, जिसका मुखौटा |
मुखौटों में खोया, इन्सान का चेहरा,
यदि मिले ऐसा कहीं, कोई असल चेहरा |
तो मन ही मन लगे, डर बड़ा गहरा,
कोयले की खान, क्या सच हे ये हीरा ?
सब उसको झुठाते, सच खुद को बताते,
मेमने को भी वे, भूत बनाते |
सब मिलके सच को, मुखौटा बताते,
मुखौटे ही आज, सच कहाते |
कब बाँध तोड़ सब्र का, सैलाब आएगा,
मुखौटे बहा सब, लेकर जाएगा |
कब दूध तो दूध, पानी, पानी कहाएगा,
इन्सान तो बस इन्सान, रह जाएगा |
ताजमहल – एक आश्चर्य
ताजमहल तू सदियों से, सफेदपोश नेता सा,
चमक रहा, दमक रहा |
जिसकी सफेदी में छुपा लाल रंग,
न किसी को दीख रहा, न समझ रहा |
तूने अपनी सफेदी बरकरार रखने के लिए,
कितने श्रमिकों का रक्त पिया |
कितनी विधवाओं व अनाथों की हाय जीया |
एक तख्ते-ताज की हवस के लिए, तूने क्या-क्या न किया |
एक मलिका की लाश जिन्दा रखने के लिए,
कितने जिन्दों को लाश किया |
तूने इस खून को, दिन के उजाले व रात के अँधेरे में,
छुपाने की बहुत कोशिश की |
लेकिन फिर भी,
सुबह व शाम के उगते व अस्त होते सूरज की रोशनी में,
तेरा वह रक्तिम-रूप साफ-साफ दिखता है |
जिसे देख फिर भी,
न कोई उत्तेजित, न कोई आंदोलित,
न कोई तड़फ न कोई तिलमिलाहट |
बल्कि इसके विपरीत,
हर कोई तुझसे सम्मोहित,
तेरे लिए लालायित, बेकरार,
कुछ भी करने को तैयार |
कैसा चमत्कार !
इसीलिए तू शायद, दुनिया का एक आश्चर्य |
बड़ा आश्चर्य! बड़ा आश्चर्य!! बड़ा आश्चर्य!!!
मानवता का जाम
तू कालजयी तेरी बात अलग, मैं कालमयी मेरी बात अलग |
तू तो है अदृश्य, अमर, पर मैं जीता साक्षात जगत |
तू महाकाल, हिसाब सभी के, हर क्षण का रखता |
मैं नश्वर, पल-पल मरता, लेकिन हर पल जीवन का जीया करता |
यदि तू तेरा अमृत-प्याला पी, खुश रहता,
मैं भी अपनी जीवन-हाला पी, हर पल मस्त रहा करता |
तुझे मुबारक हो तेरा यह अमृत-प्याला,
मैं मानव बस मानवता का, हरदम जाम पीया करता |
तू कालजयी.............
प्रवृतियाँ
सात्विक
सूर्य की किरणों में, पानी की बूंदों सी |
बहती बयार में, फूलों की खुशबू सी |
दूध में मिली, शक्कर की मिठास सी |
जहाँ भी होती, उसे ही महकाती |
दिखती नहीं, पर महसूस होती,
बस एक आभास सी |
राजसी
इस भौतिक दुनिया में, हर दिलोदिमाग पर |
कोहरा सा छा रहा, उजियाला अंधकार |
जो सूर्य के प्रकाश सा, दर्पण में चिलकता |
जिसकी चकाचौंध में, बाकी सब लुप्तप्राय |
तामसी
कोयले से काले कर्म, काजल सा जिसका मन |
अमावस की रात, घनघोर घटा छाई, ऊपर आकाश |
सब कुछ कलुषित, सभी ओर अंधकार |
फिर भी लगता, स्वप्निल उजियाला |
चुनाव
चुनाव के बारिशी मौसम में,
मेंढक से नेता, हर जगह टरटराने लगे |
हर तरफ अमन-चैन की हरियाली, व-
गुलाबी खुशहाली दिखलाने लगे |
जिसे देख हर व्यक्ति, अपनी तरक्की के ख्यालों में खोने लगा,
और उनके दिए सच्चे सुनहरे सपनों का, आनन्द लेने लगा |
जब नींद खुली, सपना टूटा, तो मौसम को बदला पाया,
हरियाली व खुशहाली के मेंढकों को, कहीं नहीं पाया |
बारिश का मौसम जा चुका था, थी हर तरफ अब सर्दी आई,
गरीबी की नंगी, खुली, दर्दीली आहें छाई |
फिर वही पतझड़, गर्मी, उमस, सूखा |
सब कुछ वैसा का वैसा ही, कुछ न बदला |
कायाकल्प
मैं ताड़ की तरह खड़ा था अकेला तनहा,
लम्बा, सूखा, सपाट, नंगा सा बस तना |
तुमने आ लचीली लता सा मुझको लपेटा,
अपनी प्यार की ओढनी से मुझको ढका |
फिर रंगबिरंगे फूल खिले, हर तरफ महक छाई,
पूरी बगिया में जिससे एक रोनक आई |
मैंने तो बस तुम्हें, थोड़ा सा सहारा भर दिया था,
तुमने तो मेरा कायाकल्प ही कर दिया |
और मेरा पूरा जीवन ही, खुशियों से भर दिया,
धन्यवाद रोशन बाटी का, कैसे कर पाएगा यह दीया |
जीवन – पथ
प्रश्न –
जनम से मरण तक का, अनदेखा यह पथ,
जिस पर अन्जाने ही, बढ़ रहे हम सब |
जो गुजर गया वह हर पल, इस पथ जाता मर,
इसीलिए कहलाता वह उमर |
अन्त इस पथ का होता सदा ही,
फिर भी कहलाता है यह क्यों-
मृत्यु नहीं जीवन-पथ ?
उत्तर –
जो गिर फिर उठ रहा वह उमर,
जो हर पल जी मर रहा, वह उमर |
जो बीते हुए समय का ले साथ अनुभव,
बढ़ रहा खुशहाल हर पल वह उमर |
अन्त हर पथ का होते दिखता सदा ही,
पर जो मर कर भी अमर हो गए,
उन्होंने अनुभव से जाना,
और बतलाया इसे मृत्यु नहीं,
एक अनन्त जीवन-पथ |
पाद - इक आवामी आवाज
पाद,
इक आवामी आवाज |
जो तानाशाही में,
धीरे-धीरे फुसफुसाती है |
और इसी तरह, अपने दिलो-दिमाग की गन्दगी,
बाहर निकाल पाती है |
खुद भी रोती है, दूसरों को भी रुलाती है |
या,
साम्यवाद की तरह,
सिर्फ़ उतना ही बोल पाती है,
जितना व जैसा पोपट की तरह सिखाया जाता है,
और इससे अधिक कुछ भी नहीं कर पाता है |
या,
पूँजीवाद की तरह,
अन्दर ही अन्दर भरा, बस गुडगुडाता है,
बाहर कुछ नहीं आता है,
कब्ज या अजीरण हो जाता है |
दिमाग में चढ़ उसे भी वैसा ही बनाता है |
या,
जो प्रजातंत्र की तरह,
चिल्लाता है, नारे लगाता है,
थोथे चने सा बहुत शोर मचाता है |
सबका ध्यान आकर्षित कर,
नेता बन जाता है |
फिर वह हँसता, खिलखिलाता है,
मौज-मस्ती मनाता है |
बाकी सब भी, उस ‘ढपोलशंख’ के,
दो नहीं चार के वादों से,
एक बार खुश हो जाते हैं |
लेकिन नतीजा वही, ‘ढाक के तीन पात’ सा,
एक आशा, एक उम्मीद पर टिक जाता है |
इससे अधिक कुछ नहीं कर पाता है |
निर्मल – हास्य
जीवन हँसना और हँसाना, सभी ग़मों को दूर भगाना |
खुश रहना व खुशी बाँटना, यही तो है सच्चा खजाना |
पर दूजों की न हँसी उड़ाना, खुशी का हर दिल दीप जलाना |
निर्मल हास्य ही सच्चा जीवन, वही है असली परमानन्द |
सोच का फर्क
आदमी-आदमी की सोच में बड़ा अन्तर,
कोई पत्थर बना हीरा, कोई रहा बस कंकर |
कोई भिक्षा पा, प्रभु के गुण गा रहा,
और वह महात्मा कहला रहा |
कोई भीख पा, प्रभु को कोसता, हाय-हाय मचा रहा,
और बस वह भिखारी ही कहला रहा |
दोनों का कर्म एक सा, मगर सोच में बहुत अन्तर |
कोई पत्थर बना............
कोई आधा ग्लास दूध पा, आनन्दित हो रहा,
और कोई उसे आधा खाली बतला, किस्मत को धिक्कारता |
बात तो एक ही, दृष्टि मगर अलग-अलग |
कोई पत्थर बना............
अखण्ड – ज्योति
जिसको अपना कह रहा, क्या वह है मेरा ?
बस भुलावा, यह तो है आग का घेरा |
जिसकी रोशनी में ही, मैं स्वयं को खोजता,
जल जाऊँगा उसी आग में, यह नहीं मैं सोचता |
भूल रहा वह अखण्ड-दीप, जो मेरे ही अन्दर जल रहा,
उसकी ज्योति ही है बस सच, वही कंचन जो खरा |
बाकी सब कुछ झूँठ, धोका, जिसको अपना कह रहा |
हर साख पे उल्लू बैठा है
इधर-उधर चाहे जिधर, नगर, डगर या शहर,
बाहर जहान या अपने घर, जहाँ तक जाती नजर,
है वही बस दृष्टिगोचर, हर जगह वही तो बैठा है,
हर साख पे उल्लू बैठा है |
उल्लू उचक-उचक बैठे हैं, ऊँची-ऊँची गद्दी पर,
क्योंकि आँखोंवाले देखो, बने हुए हैं उल्लू बस,
उल्लू की हरदम दीवाली, बाकी का दिवाला होता है |
हर साख पे............
फानूस जो शाम का रक्षक, वहाँ भी उल्लू बैठा है,
तेरे-मेरे हर मन में, एक उल्लू हरदम रहता है,
जो देख उजाला अंधा होता, यदि अंधकार खुश होता है |
हर साख पे..............
लक्ष्मी को ही देख सका, उल्लू अंधकार में बस,
जहाँ सरस्वती का हो प्रकाश, वहाँ उल्लू होता अंधा बस,
ज्ञान छोड़ बस धन पाने का, अब केवल रेलम-पेला है |
हर साख पे................
ऑटो-रिक्शा
राजा, नवाब सा ऑटो-रिक्शा,
फिर भी जन-सेवक कहलाता |
कछुआ सा पर रौब जमता,
हर राह में यह घुस जाता |
प्रगति-पथ सब जाम कराता,
राज-मार्ग पर जब यह आता |
उल्लू पर ‘पद’, लक्ष्मी पाता,
अपने असली रंग दिखता |
राजा-नवाब........
जनता ‘बस’, इससे घबराती,
सभ्य, सुशिक्षित ‘कार’ बिदकती |
मजदुर ‘ट्रक’, किसान ‘ट्रेक्टर’,
नवयुवक ‘दो-पहिया’ डरती |
टेढ़ी टांग यह जहाँ फसाता,
सबकुछ बंटाधार करता |
राजा-नवाब...........
कायदे-कानून सा ‘ट्राफिक-सिग्नल’,
इसका कुछ भी कर नहीं पाता |
सीधी राह यदि जा न सका तो,
गलियों से घुस, काम करता |
सब गुण्डे, पुलिस हैं इसके भाई,
यह नेता है सबका दादा |
राजा-नवाब............
मैं खुश हूँ
मैं खुश हूँ,
जी हाँ, मैं बहुत खुश हूँ |
क्योंकि,
हमारी गरीबों की गन्दी बस्ती में,
सिर्फ़ एक पानी का नल है,
जिससे हमें नियमित, गटर-गंगा का शुद्ध जल मिलता है,
जिसे पीकर मैं भाला-चंगा, स्वस्थ्य हूँ |
इसीलिए मैं खुश हूँ |
जी हाँ मैं.....
क्योंकि,
यहाँ हमारी आर्थिक प्रगति के ठेकेदार ये पूँजीपति,
और मजदूरों के मसीहा ये ‘यूनियन-लीडर’,
जिनका अस्तित्व मजदूरों पर टिका होता है,
उन्हीं की बलि चढ़ा, अपने बड़े-बड़े बंगले बनाते हैं,
और मजदूरों को उनके, अपने-अपने घरों के सपने दिखाते हैं |
जिन्हें देख मैं भी खुश हूँ |
जी हाँ मैं......
क्योंकि,
यहाँ भव्यता की प्रतीक ये ऊँची-ऊँची ईमारतें, व –
गन्दगी व बदबू से भरी ये झुग्गी-झोपड़ियाँ,
साथ-साथ व पास-पास, एक साथ पनपती हैं |
व झोपड़ी में भूख से तडफता व बिलखता बच्चा,
यह भव्यता देख, शायद चुप हो जाए,
यही सोच मैं खुश हूँ |
जी हाँ मैं......
क्योंकि,
यहाँ ये नेता व पुलिस, जो हमारे रक्षक है,
और ये गुण्डे, माफिया, चोर-उचक्के, जो हमारे भक्षक हैं |
‘राम-राज्य’ की कल्पना की तरह,
एक ही घाट का पानी पीते हैं |
और शायद गाँधीजी स्वर्ग से,
अपना यह ‘सुनहरा-भारत’ देख, खुश हो रहे हों,
यही सोच मैं भी खुश हूँ |
जी हाँ मैं.......
माँ से मम्मी
माँ,
जब मैं अपने नन्हें पग, तेरे स्तन पर मारा करता था,
फिर भी मुझको बड़े प्यार से, तू अपना दूध पिलाती थी |
जब तू मेरे मेले में सोती पर, मुझे साफ-सूखे में सुलाती थी |
जब तू ठण्ड में स्वयं कांपती, पर अपनी ओढनी मुझे उड़ाती थी |
जब मैं रोता, तू दुखी हो, खुद से मुझे चिपकती थी |
तब तू माँ थी, परमात्मा से भी परम-प्रिय, बस एक माँ थी |
लेकिन जब से,
आया के हाथों बोतल से मैं दूध पी रहा |
तेरी छाती से लगने को मैं तरस रहा |
जो मैं रोता तो आया पर तू चिल्लाती |
यदि ‘सू-सी’, ‘पोटी’ मैं करता, तो घिन से तू मुँह बनाती |
बस सजा-धजा एक खिलौने सा ही, अब मैं तुझको भाता हूँ |
ना वह ममता, ना ही करुणा, अब मैं तुझमें पाता हूँ |
इसीलिए तू अब न रही ‘माँ’, बस पिरामिड सी ‘ममी’ हो गई |
विडम्बना
मैं,
हर सुबह,
मन्दिर में अपने कर्मों को,
दांतों की तरह,
पूजा-पाठ व दान-दक्षिणा के ‘ब्रश’ से चमकता |
और फिर दिन भर,
भ्रष्टता व कुकृत्यों की,
मिठाइयाँ खाने,
स्वयं को,
तैयार पाता |
कैसी विडम्बना है |
दुर्भाग्यपूर्ण - सत्य
नेता,
प्रतिदिन,
काली दाढ़ी की तरह बढ़ते,
अपने कुकर्मों पर,
सफाई या खण्डन का,
सफ़ेद साबुन लगाता |
व,
उसे, ‘मिडिया’ की तेज धार वाले,
‘रेजर’ से कटवाता |
लेकिन हर सुबह उसे,
वैसा ही बढ़ा पाता |
दुर्भाग्यपूर्ण,
किन्तु सत्य |
मैं कौन हूँ ?
मैं कौन हूँ ?
जी हाँ, मैं कौन हूँ ?
जो हमेशा लड़ता रहता, काँव-काँव करता रहता |
लेकिन कौवे तो संकट या अच्छा खाना देख, काँव-काँव चिल्लाते हैं,
और इस तरह सुख-दुःख में, अपनी पूरी जाति को उससे अवगत कराते हैं |
लेकिन मैं तो अपने मतलब के लिए, तू-तू, मैं-मैं करता रहता,
व दूसरों की तकलीफ देख, मन्द-मन्द मुस्कराता हूँ |
तो फिर मैं कौन हूँ ?
तो फिर मैं कौन हूँ जो हमेशा,
गिद्ध की तरह, दूसरों पर झपटता,
और उसे नोच-नोच खाने को हरदम ही तत्पर रहता |
लेकिन एक गिद्ध दूसरे पर, कभी नहीं झपटता,
और नोच-नोच, उसका गोश्त भी चट नहीं करता |
तो फिर मैं कौन हूँ ?
तो फिर मैं कौन हूँ, जो –
दानवों की तरह दूसरों को डरता-धमकाता,
अपने मतलब के लिए, घिनौने से घिनौना काम भी कर जाता |
लेकिन इतिहास गवाह है कि दानवों ने, अपनी जाति के उत्थान के लिए,
एकजुट हो अनेकों बड़े-बड़े युद्ध किये |
लेकिन मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया |
तो फिर मैं कौन हूँ ?
तो फिर मैं कौन हूँ ?
क्या मैं मानव हूँ ?
लेकिन उसमे तो मानवता होती है,
दूसरों कि पीड़ा से उसको तडफन होती है |
दुख भरी चीत्कार, जिसके दिल को दहला देती है |
दूसरों कि भूख, जिसको बिलखा देती है |
और नग्नता देख, जिसकी नजरें शर्म से गड जाती हैं |
लेकिन मुझमें तो ऐसा कुछ भी नहीं है |
तो फिर मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ?? मैं कौन हूँ ???
मृतप्राय – संस्कृति
आज हमारी लहलहाती संस्कृति,
सूख कर गिर रही मृतप्राय सी |
जिसके लिए त्याग सब, ऋषि-मुनि हमारे,
आदिवासी मध्य जाकर जंगलों में |
बीज वैदिक-संस्कृति के थे जो बोए,
फूल-फल जिसके अभी तक, पा रहे थे हम सभी |
पर आज जब ‘केक्टस’-सस्कृति कि कलम,
भौतिक-मरुस्थल में, लग रही है हर तरफ |
खाद-पानी के बिना ही वह स्वयम्,
फूल-फलती फ़ैल रही हर तरफ |
यदि लुप्त होती संस्कृति को फिर जिलाना,
यदि ‘केक्टस’ जड़-मूल से हमको मिटाना,
यदि फूल चम्पा व चमेली के खिलाना,
तो संजीवनी सा कुछ हमें करके दिखाना |
पूर्वजों कि दी धरोहर बेशकीमत,
बीज संस्कृति के तिजोरी में ही रखो मत,
सिर्फ़ उनकी बात करना है नहीं बस,
आज उनको बाहर निकाल, बोना है आवश्यक |
नई-पीढ़ी की धरा पर, आज उनको डाल कर,
सभ्यता व सुसंस्कारी खाद इसमें डाल कर,
आज मरुस्थल हो रही भूमि को,
सींचना होगा लहू से त्याग के |
तब बनेगा एक सुन्दर गुलिस्ताँ,
और खिलेंगे फूल जिसमें,
राम से, घनश्याम से |
सच्चा – जीवन
यदि ज्यादा हो कीचड़, या एकदम हो सूखा,
बीज उसमें कभी भी पनपता नहीं है |
ऊष्मा व नमी हो, जब जरूरत के मुताबिक,
बीज से अंकुर निकलता तभी है |
जब एक झुकता तो दूजा है उठता,
जो दूजा झुके तो पहला है उठता |
जब समतोल हों जीवन के पलड़े,
बस मन का काँटा थिरता तभी है |
जब भूख-उपवास तो खाने की खोज,
करते हैं उपवास जब दावत हो रोज |
आहार मिलता जब संतुलित हो,
देह स्वस्थ्य व सुन्दर रहती तभी है |
जब तार ढीले या ज्यादा तने हों,
तो वीणा से संगीत निकलता नहीं है |
यदि जरूरत हो जितनी, उतना ही रखें तो,
जीवन का संगीत सधता तभी है |
जो पुण्य से न इतरा रहा हो,
न पाप का ही जिसको डर हो |
जिसने द्वंदों में समत्व रख, साधा हो जीवन,
बस उसने ही जीया है, एक सच्चा जीवन |
जीवन की बैलगाड़ी
बैलगाड़ी-बैलगाड़ी, जिन्दगी की बैलगाड़ी |
कभी खडखडाती चले तो कभी मुस्कराती बैलगाड़ी |
कभी पक्की रोड़ पर तो कभी खड्डे और खाड़ी |
कभी सरपट भागती तो कभी यह है डगमगाती |
कभी छाँव में सुस्ता रही, कभी धूप में है चिलचिलाती |
चल रही यह सहन करती, सर्दी, गर्मी और बारिश |
कभी तेल से तर इसके पहिये, कभी सूखी चरमराती |
कभी बोझ से दबती है यह, कभी हलकी खिलखिलाती |
बैलगाड़ी-बैलगाड़ी..........
मैं – एक भिखारी
क्या होता आभार प्रदर्शन, यह मैं नहीं जानता,
सब कुछ दिया मुझको प्रभु तूने,
पर मैं भिखारी ही रहा बस माँगता |
चाँद, सूरज और सितारे आसमां पर,
हरे-भरे, पेड़-पौधे इस जमीं पर |
नदी, पर्वत, हवा, सागर और जंगल,
मानव-तन सी सम्पदा जो बहुत दुर्लभ |
बिना मांगे ही दिया सब, तूने हमको ऐ विधाता |
पर मैं भिखारी ही..........
नदी देती ही रही है सर्वदा से,
पर्वत बादल रोक कर बरखा कराते |
पेड़-पौधे फूल-फल देते कभी भी न अघाते,
मेघ अपने में भरा अमृत लुटाते |
सूर्य अपनी रोशनी निर्भेद होकर बाँटता |
पर मैं भिखारी ही...........
सब कुछ तेरा ही दिया, पर मैं समझूँ मेरा किया,
अच्छा किया मैंने किया, दुःख-दर्द सब तेरा दिया |
जब भी तेरी चौखट पे आया, स्वार्थ ही ले बस अपना,
न माना कभी आभार तेरा, न की कभी भी प्रार्थना |
अहंकारी मैं सदा से, समझूँ स्वयं को मैं विधाता,
पर सत्यता यह मैं भिखारी ही रहा बस माँगता |
अन्ना का अनशन
अन्ना ने,
अन्न ना लिया,
अनशन किया,
और,
अपनी आत्मा को भी बेच,
और-और खाने से अजीर्ण हुए,
‘मनी-पावर’,’मसल-पावर’ व सत्ता के मद में चूर,
भ्रष्टाचारियों को,
यह सबक दिया,
कि,
गरीब अवाम के उपवास में,
उनकी ‘पावर’ से,
ज्यादा ताकत होती है |
कवि और कविता
प्रश्न –
कविता तो अमूर्त, मूर्तिवत होती निष्ठुर,
बेदर्दी बन जिसने तुमको, दर्द दिए बस |
बेकारी, मुफलिसी भी, दी ‘बोनस’ सी जिसने,
इसके सिवा दिया क्या है, तुमको इसने ?
फिर भी तुम क्यों दीवाने से, एक पगले से उसके पीछे ?
हर कोई हरदम ही मुझसे, बस यही प्रश्न है पूछे |
उत्तर –
मैं एक प्रेमी प्यार करूँ बस, कुछ न चाहूँ |
मैं परवाना, शमा है वो, मैं प्यार करूँ बस उससे |
जल जाऊँ पर चाह नहीं, मेरी कोई भी उससे |
वह कुछ दे या न दे, उसकी मर्जी,
मेरा प्यार है गंगोत्री सा, नहीं वस्तु की बेच-खरीदी |
मरू से झुलसाए मेरे जीवन में, जिसके कारण,
प्यार के सुन्दर फूल खिले |
तुम क्या जानों, तुम क्या समझो,
इस जग में रस लेने वालों |
क्या होते है कवि-कविता, क्या होते हैं प्रेमी-प्रेमिका |
मैं तो कवि हूँ, एक प्रेमी, कविता मेरी प्रेमिका |
सम्बन्ध
हमनें नया-नया पौधा जो रोपा,
उसे चाहिये ज्यादा ध्यान, पालन-पोषण, संवरक्षण |
जो पूर्ण रूप से हो विकसित, बन गया हो एक वृक्ष,
उसे नहीं चाहिये कोई सहारा, वह स्वयं ही होता सक्षम |
यदि किसी से हमें हो जुड़ना, तो बढ़ाना अपना हाथ,
तभी पा सकेंगे केवल, उसका प्यार भरा हम साथ |
नेता व अवाम
नेता,
जो कुछ नहीं देता, सिर्फ़ लेता ही लेता |
जो चुनाव के समय, हर जगह मिलेगा,
पर चुनाव के बाद, कही नहीं दिखेगा |
जो चुनाव के समय, गधे को भी बाप माने,
और चुनाव के बाद, किसी को भी न पहचाने |
जो जनता को दे, वादों कि रोटी,
और पहनने को दे, सपनों की लँगोटी |
जो गरीब की झोपड़ी ले, उसे दे उम्मीदों का मकान,
और उस झोपड़ी पर खड़ी करे, बिल्डिंग आलीशान |
जो खुद खाए मक्खन, हलवा, हवाला,
और जनता का पीटे, पूरा दिवाला |
जो खुद को खुदा से, कम नहीं मानता,
मगर वह यह, क्यों नहीं जानता |
कि जिस दिन जनता, वास्तविकता जान जाएगी,
उस दिन तुझ पर गाज टूटेगी, क़यामत आएगी |
अवाम की भूख की नंगी तलवार, व गरीबी की ढाल,
एक क्रांति लाएगी, और नेता तेरा सर्वनाश कर जाएगी |
दिल एक आईना
दिल सबसे अच्छा एक आईना है,
एकदम स्वच्छ, एकदम उज्वल |
बनता कभी समतल, कभी अवतल, कभी उत्तल |
वही दिखता है, जो देखता है,
वही बताता है, जो सत्यता है |
अच्छा करो तो, अच्छा दिखाता,
बुरा जो करो तो बुरा ही दिखाता |
दिखाना ही इसका परम-धर्म है,
छुपाता नहीं यह कोई कर्म है |
छुपालो जो चाहो दुनियाँ से,
छुपता नहीं कुछ, मगर दिल से |
अवतल बन यह, अच्छा दिखाता,
बुरा यह उत्तल, बन के दिखाता |
गहराईयाँ अवतल में मिलेंगी,
उथलाईयाँ उत्तल में दिखेंगी |
अगर हमको सच्चा इन्सान बनना,
तो गहराईयाँ में हमको उतरना |
हर बार दिल की जो हम बात माने,
तो अपने को सच्चा इन्सान जाने |
खुदा मैंने न कभी देखा न जाना,
बस दिल के आईने को ही, खुदा मैंने माना |
सच्चा – सुख
रंग-बिरंगे खिले फूल, करते है सब को आकर्षित |
रंगों पर जो मर-मिटते, खुशबू से से रहते हैं वंचित |
रंग सिर्फ़ छल का प्रतिद्योतक, क्षणिक सुख ही दे पाता |
खुशबू दिल का प्रतिबिम्ब है, जो औरों को भी महकाता |
अच्छे लगते फ्रीज, रेडियो, ए.सी., टीवी, बंगला, गाड़ी |
जबतक ये सब मिल नहीं जाते, मन में रहता ताण्डव जारी |
फ्रीज, टीवी से घर नहीं बनता, घर बनता रहने वालों से |
बंगला चाहे जब भी ले लो, सुखमय जीवन घर वालों से |
‘जंक-फ़ूड’ सी पश्चिमी-धारा, मन को हरदम ललचाती |
शुद्ध, सात्विक भारतीयता, तन-मन में सब रस भर जाती |
पश्चिम कि भौतिक-संस्कृति, जो सबको विकृति सिखलाती |
इन्द्रधनुष सी भारतीय-संस्कृति, मानवता का पाठ पढ़ाती |
वस्तु-विषय सब मृगतृष्णा से, भौतिक सुख ही दिखलाते |
आत्म-शान्ति, आनन्द-अनुभूति, केवल सत्-कर्मों से ही पाते |
प्यार ही है सच्चा जीवन
सभी तरफ बिखरा फैला, वह प्यार ही है सच्चा जीवन,
फिर क्यों बना मानव मतलबी, सबका दुश्मन |
लिए गगन का प्यार, धरा पर बरखा आती,
ले पर्वत का प्यार, नदी सागर तक जाती,
पाकर चमन का प्यार, होती सुरभित शीतल पवन |
फिर क्यों बना..........
लिए रवि का प्यार, रोशनी उमंग जगाती,
पाकर शशि का प्यार, किरण चाँदनी है बन जाती,
फूलों का पा प्यार, भँवरे इठलाते करते गुंजन |
फिर क्यों बना.........
पौधों का ले प्यार, फूल-फल घर-घर जाते,
टिम-टिम करते तारे, प्यार का दीप जलाते,
लिए धारा का प्यार, गाते ताल-तलैया, उपवन |
फिर क्यों बना.........
मुंबई का जीवन
कितना ‘एडवांस’ मुंबई का वासी,
सभी भोतिक सुविधाएँ पाता |
लेकिन जब चर्चा सुख-चैन की,
कितना मजबूर स्वयं को पाता |
कार, बसों में दौड लगाता,
कोई उसे रोक न पाता |
लेकिन मजबूरन रुकता वह,
जब ‘ट्राफिक-जाम’ या ‘सिग्नल’ आता |
घर से दौड़ा-दौड़ा जाता,
‘पास’ ट्रेन का साथ ले जाता |
कितना मजबूर स्वयं को पाता,
जब भरी ट्रेन में चढ़ नहीं पाता |
सुबह रोज जल्दी चला जाता,
रात देर मेहमान सा आता |
कितना मजबूर स्वयं को पाता,
जब बच्चे कहते ‘संडे’ पापा |
नव-वर्ष
नव-वर्ष कि शुभ-बेला में,
आओ हम सब मिल कर जीलें |
नए साल में जीवन की,
मधुशाला का मधु भी पीलें |
उत्साह-उमंग के फूल खिलें अब,
इन्द्रधनुष से रंग भरें सब |
मेहनत की सौंधी खुशबू,
जीवन सब का महकाऐ अब |
आओ जीवन को अब जीलें,
जीवन मदिरा जी भर पीलें |
नव-वर्ष.......
केवल खाना-पीना-जीना छोड़ें,
जीवन को समझें व खेलें |
ईश के इस जीवन-उपहार का,
हर एक लम्हा अब हम जीलें |
नव-वर्ष......