Friday, November 4, 2011

तम्बाकू की विनती


       तम्बाकू की विनती
मैं अलबेली तम्बाकू, प्यार करूँ गर्दभराज से,
आकर्षित, सम्मोहित करती, उनको अपने महक भरे प्यार से |
लेकिन उनको तो नफरत है, मेरी रंगत, खुशबू तक से,
अतः जलभुन कर बनी विष-बाला, इर्षा, द्वेष, जलन, मत्सर से |
पर मनुज दीवाना मुझ पर मरता, पागल, मतवाला हो कर,
मजनूं सा पाने को मुझको, भटक रहा हर गली-डगर |
कभी खैनी, सूखा, सुरती, नसवार, कभी गुटके में शृंगारित कर,
कभी पनेडी से लाकर तुम, पीते मस्ती में मेरा रस |
कभी बीड़ी, सिगरेट, चुरुट, सिगार, कभी हुक्का व चिलम सजाकर,
मेरा चुम्बन लेने को तुम, कितने व्याकुल, कितने बेकल |
मेरे धुँए के आलिंगन में, तुम अपने फ़िक्र, गम उड़ा रहे,
लेकिन मेरा डाह-विष, तुम्हें अन्दर-अन्दर जला रहे |
तुम चाहे मेरे आशिक हो, पर- मैं तुमसे प्यार नहीं करती,
मुझसे बलात्कार का दण्ड, हरदम तुम्हें दिया करती |
तुम सोच रहे जीवन में अपने, मजा ले रहे मेरा हर पल,
लेकिन तुम्हें बतौर सजा मैं, देती टीबी, अल्सर, केन्सर |
मैं पतिव्रता हूँ वफादार, केवल गर्दभराज के प्रति,
वे पत्नी माने, न माने, मैं उन्हें मानती अपना पति |  
मैं नहीं तुम्हारी हो सकती, पर- यदि तुम सच्चे प्रेमी हो,
तो पाने की त्याग कामना, प्रेम-भाव से मुझे छोड़ दो |

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर भावप्रणव प्रस्तुति।

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  2. मदनजी,
    बहुत-बहुत धन्यवाद |

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