Monday, February 1, 2016

       क्या यही जिन्दगी है?
           
कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है कि,
रोज़मर्या की जद्दोज़हद से हो बेख़बर,
जिंदगी को सूखे पत्तों की तरह,
यूँ ही उड़ने दूँ,
हवाओं को सुपुर्द (समर्पित) होकर,
इधर-उधर,
बिना किसी लक्ष्य,
मिटाकर अपनी हस्ती, अपना वज़ूद,
अपनी अहमियत खोकर।
लेकिन कभी-कभी सोचता हूँ कि -
जिन्दगी में यदि मंज़िल हो मुकम्मल,
और रास्तों की भी हो ख़बर,
तो आसान हो जाता है सफ़र।
लेकिन कभी-कभी विचार आता है कि,
ज़िन्दगी से हो बेख़बर,
मैं अपने शेखसिल्ली ख़्वाबीदा बावरे मन के,
खयाली पुलावों में फ़स,
और-और,
ऐशो-आराम,
शानोशौकत,
दौलत और शोहरत,
ऊपर, और ऊपर बुलंदियों को छूने की,
अन्तहीन ख्वाइशों के लिए,
संसार के बवण्डर में,
उलझता, फसता, भटकता,
कभी नीचे, कभी ऊपर,
लगाता रहूँ यूँही चक्कर।
दिल में चलते रहते हैं सदा योंही,
कई-कई द्वन्द, कशमकश, असमंजस,
और फिर सोचने लगता हूँ,
क्या यही ज़िन्दगी है?!!
~'द्वारका बाहेती'~

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