Thursday, April 21, 2016

        अस्तित्व को कैसे जानें?
      अस्तित्व सर्वव्याप्त, सत्तामात्र है। दृश्य-अदृश्य प्रकृति, चैतन्य, माया जो कुछ भी है, इसी में समाहित है। इसके बाहर कुछ नहीं होता। अस्तित्व को जान, उसका अनुभव ही मानव का एकमात्र 'धर्म' होता है। इसके अलावा धर्म के नाम पर आज जो भी परोसा जा रहा है, वह सब एक अफ़ीम का नशा, एक भूलभुलैया से ज्यादा कुछ नहीं है। अस्तित्व को पूर्णरूप से जानने के दो ही मार्ग होते हैं -
1 - बाह्य-मार्ग
2 - आन्तरिक-मार्ग
1 - बाह्य-मार्ग -
      आरम्भ में एक साधारण मनुष्य के लिए उसका शरीर तथा उसके बाहर उसका एक दृश्य बहिर्जगत - नदी, पर्वत, पेड़-पौधे, घर-मकान, जनसमुदाय आदि ही उसका जीवन होता है। चूँकि पैदा होने के साथ ही उसका जिससे साक्षात्कार होता है, वह यही शरीर व दृश्यजगत है, अतः उसका इनसे गहरा व मजबूत रिश्ता होता है । अतः उसका इसके प्रति आकर्षण व जिज्ञासा स्वाभाविक है।
   अस्तित्व या परमात्मा 'पूर्णकाम' है, मनुष्य पूर्णकाम नहीं है। उसे पूर्णकामना या आनन्द की चाहत होती है, जिसे पाकर फिर कुछ भी पाने की कामना शेष नहीं रह जाती। अतः अधिकतर साधकों को अस्तित्व को जानने के लिए यह मार्ग सरल व अनुकूल लगता है और वे 'दिव्यता' की ओर बढ़ने के लिए इसी मार्ग द्वारा अपना पुरषार्थ आरम्भ करते हैं। किन्तु यह मार्ग काफी मुश्किल होता है क्योंकि इस मार्ग में अहँकार का बहुमुखी विषेला साँप सदैव अपना मुँह खोले डसने को तैयार खड़ा रहता है।
     इस मार्ग पर चलने वाला साधक अस्तित्व को जानने की अपनी यात्रा मैं-मेरा से आरम्भ कर, जो जैसा है उसे वैसे ही, अपना ही स्वरुप, अपना ही हिस्सा समझ, प्रेम भाव से स्वीकारते हुए, अपने प्रेम का क्षेत्र धीरे-धीरे आगे बढ़ाते हुए समस्त ब्रह्माण्ड से एकत्व स्थापित कर लेता है। फिर उसे अपने से बाहर कुछ भी दिखाई नहीं देता। वह सभी कुछ अपने में ही समाहित पाता है। ऐसा कुछ भी नहीं रह जाता जो उसे प्राप्त न हो। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर वह उसके आनन्द में डूब, उसमें रसलीन हो जाता है। यही उसकी 'पूर्णत्व' या 'पूर्णकाम' की स्थिति होती है। अन्यथा वह सदा ही इच्छाओं के भ्रमर में फ़सा, दुखी व भटकता रहता है और कहीं भी नहीं पहुँच पाता। यह मार्ग पूर्णत्व, सकारात्मक (क्योंकि इसमें सभी को स्वीकारते जाते हैं), प्रवृति, प्रेम या भक्ति मार्ग भी कहलाता है। उपनिषद् ने इसी पूर्णत्व के लिए कहा है कि -
       ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात्, पूर्णमुदच्यते।
       पूर्णस्य, पूर्णमादाय, पूर्णमेवावशिष्यते।।
2 - आंतरिक-मार्ग -  
यह मार्ग उस साधक के लिए है जिसके अन्दर सर्वप्रथम यह प्रश्न उठता है कि मैं कौन हूँ? स्वयम् की खोज़ का विचार ही साधक को इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। इस मार्ग का साधक स्वयम् को जानने के लिए धीरे-धीरे क्रमबद्ध, वह सब नकारता जाता है जो वह नहीं है अर्थात् वह सब जिसका भी उत्तर 'मेरा' में होता है। जैसे मेरा संसार, मेरा परिवार, मेरा शरीर, मेरा चित्त (मन-बुद्धि-अहँकार) आदि-आदि। चूँकि कुछ भी जानने के लिए उससे कुछ दूरी जरुरी होती है, अतः जिसे भी हम जान लेते हैं, वह हम नहीं हो सकते। अन्त में जब ऐसी अवस्था आ जाती है जब ऐसा कुछ नहीं बचता जिसका उत्तर 'मेरा' में हो, वही आप होते हैं अर्थात् अन्त में ऐसा कुछ भी नहीं बचता जिसका गणित किया जा सके यानि अन्त में सिर्फ शून्य ही बचता है। और फिर वही आप होते हो। यह शून्य ही शुद्ध 'अस्तित्व' होता है। जिसके बाहर कुछ भी नहीं होता। सबकुछ इसी में समाहित होता है। फिर 'अहम् ब्रह्मास्मि' कहने का भी कोई कारण, कोई उपाय नहीं रह जाता। यह मार्ग शून्य, नकारात्मक (क्योंकि इसमें सभी  चीजों को नकारते जाते हैं), निवृति, वैराग्य या ज्ञान मार्ग भी कहलाता है।
           साधक अपने स्वभाव अनुसार कोई भी मार्ग का चयन कर, उसका अनुसरण कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना कर सकता है।
~'द्वारका बाहेती'~

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