Saturday, December 18, 2010

मरघट व उन्नति कविताएँ


               मरघट--१

तेरे घट की प्यास बुझाने ,ए मरघट |
जनम-जनम से कोशिश करते ,मर-मर कर |
फिर भी अनबुझा रहा ,सदा ही तेरा घट |
इच्छाओं के दावानल सा ,तू लगता मरघट |


          मरघट---२

मरघट में रोज ही , बस रही हैं बस्तियाँ |
मरघट में रोज ही ,बदल रही हैं बस्तियाँ |
बस कर भी मरघट की ,सुनी है बस्तियाँ |
उजड़ रही बस्तियों में ,मस्तियाँ ही मस्तियाँ  |
बस कर भी मरघट में ,दिखती बस हड्डियाँ |
चहकता वहाँ जीवन ,जहाँ उजड रही बस्तियाँ |
            उन्नति

मानव---स्वभाव--- नष्ट---संस्कृति |
परियावरण---छेड़छाड़---विनाश---प्रकृति |
सोच---व्यवसायिक---स्वार्थ---प्रवृति |
सपने---भौतिक---फल---कुमति |
परिणाम---सुखद---क्षणिक---सुषुप्ति |
तनाव---अवसाद---मस्तिष्क---विकृति |

बाहर---भोग---भौतिक---कृति |
अन्दर---चेतन---आध्यात्म---जागृति |
परियावरण---निसर्ग---मानव---संस्कृति |
सामंजस्य---तालमेल---होगी---प्रगति |
सच---तभी---सर्वोन्मुखी---उन्नति |

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